भारत का 27वां राज्य उत्तराखण्ड का उत्तरी क्षेत्र मध्य हिमालय या उत्तराखण्ड के नाम से जाना जाता है। यह उत्तराखण्ड या मध्य हिमालयी क्षेत्र कुमाऊं एवं गढ़वाल दो मण्डलों में विभक्त है। कुमाऊं मण्डल के अन्तर्गत छ: जिले आते हैं – अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार कुमाऊं की कुल जनसंख्या 42,28,998 है।
कुमाऊँ मण्डल की जनसंख्या राज्य की जनसंख्या का 41.93 प्रतिशत है। कुमायूँ मण्डल में क्षेत्रफल की दृष्टि से पिथौरागढ़ तथा जनसंख्या की दृष्टि से ऊधमसिंहनगर सबसे बड़ा जनपद है। मण्डल में सबसे कम क्षेत्रफल व जनसंख्या वाला जनपद चम्पावत है। ऊधमसिंहनगर का जनसंख्या घनत्व 649 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी0 है, जबकि जनपद पिथौरागढ़ का जनसंख्या घनत्व 68 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी0 है, मण्डल के जनपदों में जनपद ऊधमसिंहनगर का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक तथा जनपद पिथौरागढ का जनसंख्या घनत्व सबसे कम है। मण्डल का जनसंख्या घनत्व 201 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी0 है तथा उत्तराखण्ड की जनसंख्या का घनत्व 189 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी0 है।
कुमाऊं मण्डल में जनसंख्या का आर्थिक वर्गीकरण जनगणना 2011 के अनुसार मुख्य कर्मकारों में कृषक 40.60% , कृषि श्रमिक 8.39%, पारिवारिक उद्योग 2.59% तथा अन्य कर्मकर 45.62%, पाये गये। इस प्रकार मुख्य कर्मकर 12,34,528 व सीमान्त कर्मकर 4,71,016 को सम्मिलित करते हुए, कुल कर्मकरों की संख्या 17,05,544 है।
कुमाऊं मण्डल के छहों जनपदों में रहने वाला समाज कुमाऊंनी समाज के नाम से जाना जा सकता है, जिसके अन्तर्गत सवर्ण-असवर्ण जनजातीय-गैरजनजातीय, साक्षर-निरक्षर, ग्रामीण-शहरी, किसान-मजदूर, नौकरीपेशा-गैर नौकरीपेशा तथा अमीर-गरीब सभी तरह के लोग आते हैं। विभिन्न जातियों एवं धर्मों के लोग यहां निवास करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से कुमाऊं का विशेष महत्व है। पुराणों में इस वर्णनमानसखण्ड के रूप में हुआ है।गढ़वाल कोकेदारखण्ड´ कहा गया है। महाभारत में पूरे उत्तराखण्ड का वर्णन `उत्तर कुरु´ के रूप में हुआ है।
कुमाऊं में विभिन्न जातियों का आगमन
इतिहासकारों का कहना है कि प्रारंभ में यहां – यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, हूण, कोल, किरात, कुणिन्द, तंगण, खश, शक, वैदिक आर्य, कत्यूरी तथा चन्द आदि समय-समय पर विभिन्न रास्तों से आए। खशों को आर्यों की ही एक शाखा माना गया है। इन खश आर्यों के आगमन से पूर्व यहां – यक्षों, गंधर्वों, किन्नरों व नागों का शासन था। वे लोग शांतिप्रिय, कलाप्रेमी और सौन्दर्य पिपासु थे तथा कामदेव और कुबेर की पूजा करते थे। अतीत में जो शक्तिशाली जातियां यहां आयीं, उन्होंने अपने पूर्ववर्ती जाति के लोगों को परास्त कर, यहां पर शासन किया। कहा जाता है कि कोलों को किरातों ने हराया, किरातों को खशों ने और खशों को वैदिक आर्यों ने। वर्तमान में कुमाऊंनी समाज के निम्नतम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले शिल्पकार समुदाय को उन्हीं कोलों का वंशज बताया जाता है। किरातों को वैदिक साहित्य में अनार्य कहा गया है। कुमाऊं की वर्तमान राजी´ जनजाति को उन्हीं किरातों का वंशज माना गया है। खश समुदाय, जो पूर्व में आर्य थे, वैदिक आर्यों से भिन्न थे तथा ये उत्तर-पश्चिम से 5000 से 1000 वर्ष ई.पू. यहां आए। राहुल सांकृत्यांयनशख´ को शक´ का रूपान्तर मानते हैं। उनकी दृष्टि में यहां शकों का राज्य था।शक´ की बाद में ध्वनि-परिवर्तन के आधार पर `खश´ हो गया। लगभग सभी पूर्ववर्ती इतिहासकारों का मानना है कि कुमाऊं के शिल्पकारों को छोड़कर शेष सभी जातियां बाहर से आकर यहां बसीं। खशों के बाद यहां पर वैदिक आर्यों का आगमन हुआ और उन्होंने खशों को परास्त कर, यहां पर अपना शासन कायम किया।
कुमाऊँ में मौर्यों का शासन काल
भारत में मौर्य शासन (345 ई.पू. से 184 ई.पू. तक) से उत्तराखण्ड के इतिहास के दस्तावेज मिलते हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर उत्तराखण्ड में मौर्यों का शासन था। मौर्यों के बाद कुणिन्दों का यहां शासन रहा। कुछ इतिहासकारों की दृष्टि में वर्तमान जौनसारी (जौनसार भावर में रहने वाले) उन्हीं के वंशज प्रतीत होते हैं। कई जगहों पर कुणिन्दों के सिक्के भी यहां मिले हैं। कुणिन्दों का मिस्र के यूनानियों के साथ एक विशेष प्रकार का व्यापारिक एवं अन्त:संचार सम्बंध भी था। मौर्यों के बाद गुप्त साम्राज्य का भी उत्तराखण्ड से सम्बंध रहा। प्रयाग प्रशस्ति´ मेंकर्तपुर´ का उल्लेख मिलता है, जिसमें उसे सीमान्त राजधानी बताया गया है जो समुद्रगुप्त (335 ई. से 375 ई) के अधिराजत्व में स्वीकार किया गया है।
कुमाऊँ में कत्यूरी शासन
पावेल प्राइस (Powell Price) ने कुणिन्दों व कत्यूरियों के बीच वंशानुगत सम्बंध स्थापित किया है। उनके अनुसार कत्यूरी या तो कुणिन्दों के वंशज थे या उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी। हो सकता है कि कुणिन्दों ने गुप्तों को परास्त किया हो और उनकी एक शाखा कत्यूर घाटी में स्थापित हो गई हो और यही शाखा बाद में कत्यूरी´ के नाम से जानी गई हो। इनका राज्य सर्वप्रथम बद्रीनाथ के उत्तर मेंजोशीमठ´ में स्थापित हुआ, बाद में अल्मोड़ा के `कत्यूरी घाटी´ (बैजनाथ) में स्थानान्तरित हो गया। कत्यूरियों ने न केवल कुमाऊं एवं गढ़वाल में सातवीं शती के उत्तरार्द्ध से ग्यारहवीं शती तक शासन किया, वरन कत्यूरी शासन के पतन के बाद भी, कुछ खास-खास स्थानों पर कत्यूरियों का शासन रहा। 12वीं शती में नेपाल के मल्ल शासकों ने आक्रमण कर कत्यूरी शासन को समाप्त कर दिया। 13वीं शती में कुमाऊं में कई छोटे-छोटे धड़े (महर-फर्त्याल ) व अन्य दल राजनीतिक अस्तित्व में आए, जिनमें सीरा-डोटी के रैका व चम्पावत के चन्द प्रमुख थे। इस तरह कत्यूरियों के पतन के साथ ही कुछ संक्रमण काल के बाद कुमाऊं में चन्दों का तथा गढ़वाल में परमारों (पंवारों) का शासन रहा। कत्यूरी एवं चन्द शासकों के बारे में यह भी किंवदन्ती प्रचलित है कि सूर्यवंशी कत्यूरी राजा अयोध्या से तथा चन्द्रवंशी चन्द शासक कन्नौज अथवा इलाहाबाद के निकटवर्ती स्थान झूंसी से कुमाऊं में आए। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि कत्यूरी राजा बाहर से नहीं आए थे वरन् यहां निवास करने वाले खशों के ही वंशज थे।
कुमाऊं में चन्द वंश का शासन
कुमाऊं में चन्द शासन का जन्मदाता सोमचन्द माना जाता है। परंपरागत जनश्रुतियों के अनुसार चन्द्रवंश का संस्थापन सोमचन्द कुमाऊं में 685 ई. या 700 ई. अथवा 1178 ई. में आया तथा उसने वृद्ध कत्यूरी शासक की कन्या से विवाह कर राज्य प्राप्त किया। अल्मोड़ा से प्राप्त वंशावलियों में उपर्युक्त तिथियों को ही सोमचन्द के राज्यारोहण की बात कही गई है। सोमचन्द के कुमाऊं में आने के बारे में कई तरह की किवदन्तियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि सोमचन्द गंगोली के मणकोटी राजा के भान्जे लगते थे और अपने मामा से मिलने यहां आए थे। दूसरी जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी राजाओं द्वारा यहां के पुराने निवासी बोरा जाति के लोगों के अधिकार छीन लिए जाने के कारण, उनकी जाति के कुछ लोग प्रयाग के पास झूंसी से सोमचन्द नामक राजकुमार को यहां लिवा लाए थे। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी शासन के पतन के बाद कुमाऊं की राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण कुछ लोग कन्नौज के राजा के पास गए तथा यहां का राजकाज चलाने के लिए किसी को भेजने का अनुरोध किया। उसने अपने छोटे भाई सोमचन्द को यहां भेज दिया। यह भी कहानी प्रचलित है कि कुमाऊं में चन्दशासन की नींव रखने वाला राजा सोमचन्द चन्द्रवंशी चन्देल राजपूत था जो इलाहाबाद के पास झूंसी या प्रतिष्ठानपुर में रहता था। एटकिंसन के अनुसार चन्द्रवंश का संस्थापक थोहरचन्द था, जिसने मल्लों के बाद चंपावत में स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर 1261 ई. से 1281 ई. तक शासन किया। थोहरचन्द के प्रपौत्र के बाद उसका सीधा वंशज नहीं हुआ, तब थोहरचन्द के चाचा के वंशज ज्ञानचन्द को चम्पावत बुलाकर सिंहासन पर आरूढ़ किया गया। अल्मोड़ा एवं सीरा से प्राप्त वंशावलियों में थोहरचन्द का उत्तराधिकारी कल्याण चन्द बताया गया है। डॉ. एम. पी. जोशी के अनुसार ज्ञानचन्द ही चंपावत-अल्मोड़ा के चन्द्रवंश का संस्थापक था। उसने 1379 ई. से 1420 ई. तक शासन किया। ज्ञानचन्द्र के बाद उसका पुत्र विक्रमचन्द्र तथा विक्रमचन्द के बाद भारतीचन्द्र गद्दी पर बैठा। डॉ. जोशी का मानना है कि कुमाऊं के स्थानीय ब्राह्मणों ने नि:सन्देह चन्द्रवंश की वंशावली का सृजन कर चन्द्रों के काल्पनिक पूर्वजों का अपने स्वयं के पूर्वजों के साथ सम्बंध दर्शाकर अपने प्रभाव को बढ़ाया। लेकिन चन्दों का उत्कर्ष 13 ई. से पूर्व नहीं ठहराया जा सकता।
सन् 1563 ई. में अल्मोड़ा नगर बसाया गया
जो भी हो, इतना निर्विवाद है कि चम्पावत से चन्द शासन पूरे कुमाऊं में फैला और 16वीं सदी तक लगभग पूरा कुमाऊं चन्दों के अधीन हो गया। सन् 1560 ई. में राजा बालो कल्याणचन्द ने अपनी राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा (खगमरा) स्थानान्तरित की। कहा जाता है कि एक खरगोश के शिकार का पीछा करते हुए वे अल्मोड़ा के निकट के जंगल में आए तो खरगोश एकाएक शेर में बदल गया। इसे इस भूमि का एक शुभ शकुन माना गया तथा लोगों की सलाह पर इस स्थान पर राजधानी बनायी गई। सन् 1563 ई. में अल्मोड़ा नगर बसाया गया। राजा बालो कल्याणचन्द की रानी डोटी के रैका राजा हरिमल की बहिन थी। कल्याणचन्द ने सीरा को दहेज में मांगना चाहा, परन्तु उसने सीरा के बदले अपने बहनोई राजा कल्याणचन्द को सोर (पिथौरागढ़) दहेज में दे दिया। बाद में बालो कल्याणचन्द के पुत्र रुद्रचन्द ने अपने मामा सीरा के राजा हरिमल्ल (रैका) पर चढ़ाई कर सीरा को भी जीत लिया। 1790 ई. में गोरखा आक्रमण ने चन्दशासन का अन्त कर दिया तथा 1790 ई. से 1815 ई. तक कुमाऊं में गोरखा शासन करते रहे। 1804 में गोरखों ने गढ़वाल को भी अपने कब्जे में लेकर, वहां परमार शासन का अन्त कर दिया। सन् 1815 ई. में अंग्रेजों ने गोरखाओं को परास्त कर, सिगौली की संधि के फलस्वरूप कुमाऊं को अपने अधीन कर लिया। इस तरह 1815 ई. से लेकर 1947 ई. तक कुमाऊं में अंग्रेजों का शासन रहा।
कुमाऊँ में विभिन्न शासन के दौरान राजभाषा
कुमाऊं में कत्यूरी शासनकाल से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक के प्रशासनिक ढांचे एवं सामाजिक संगठन पर दृष्टिपात करें तो उसमें कई तरह के परिवर्तन देखने को मिलते हैं। कत्यूरी शासन प्रबंध बंगाल के पाल शासकों से अधिक प्रभावित माना गया है। पौरव-वर्मन व कत्यूरी शासनकाल में ब्राह्मणों को विशेष संरक्षण प्राप्त था। विभिन्न वर्गों के लोग अपनी जाति व व्यवसाय के अनुसार अपने गांव व मोहल्ले बसाते थे। राजनैतिक दृष्टि से समाज कई स्तरों पर बंटा हुआ था, जिसका केन्द्र बिन्दु राजा था। राजा कर´ के रूप में प्राप्त अपनी अतिरिक्त आमदनी को शासनतन्त्र चलाने, धार्मिक कृत्यों, विशेषकर मन्दिरों के निर्माण व नौलों (जलाशयों) आदि को बनाने में व्यय करता था। चन्दों के शासन काल में, जिनका उत्कर्ष विशेष रूप से 13वीं सदी के बाद हुआ, कमोवेश यही स्थिति बनी रही, परन्तु इसमें उन्होंने कुछ और बातें भी जोड़ीं जहां कत्यूरी शासनकाल में राजभाषा संस्कृत थी, वहीं चन्दों ने आम जनता से संपर्क बनाए रखने के लिएकुमाऊंनी´ भाषा को `राजभाषा´ का दर्जा दिया, जिसका प्रमाण चन्द शासनकालीन दान-पत्रों एवं अभिलेखों में देखने को मिलता है। इस काल में शिल्प के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई । चन्दों ने मन्दिर आदि बनाने तथा धार्मिक कार्यों के लिए अपनी बहुत-सी जमीन गूंठ (दान) में चढ़ाई।
चंद शासकों की कर प्रणाली
चन्दों के समय में जमीन का मालिक थातवान (जमीन्दार) कहलाता था। जमीन कमाकर पैदावार करने वाला तथा अनाज व नकदी के रूप में मालगुजारी (रकम) देने वाला व्यक्ति खायकर (खैकर) कहलाता था। नकदी के रूप में’कर´ (टैक्स) देकर जमीन कमाने वाला असामी सिरतान´ के नाम से जाना जाता था। खेतों में काम करने वाला गुलामकैनी´ तथा खरीदे गए घरेलू नौकर छ्योड़ा´ कहलाते थे। ये सभी नाम चन्दों के दिए हुए हैं। चन्द शासकों ने 36 प्रकार केराजकर´ लगाए थे, जिन्हें थातवान राजकोष में जमा करते थे। थातवान अपनी जमीन दूसरों को कमाने को दे सकता था वे थातवान के खायकर´ कहलाते थे। थातवान ज्यादातर राजपूत ही थे। जिनके पासरौत´ या जागीर होती थी, वे अपने को रौत या जागीरदार कहते थे। थातवान अपने कैंनी´ वछ्योड़ा´ को जब चाहे बेच सकता था। कैंनी को थातवान की चाकरी भी करनी पड़ती थी तथा थातवान व राजा के मरने पर मुण्डन भी करना पड़ता था। अपनी जागीर ब्राह्मण को संकल्प कर दान में दे देने या किसी और के नाम कर देने पर थातवान जागीर पाने वाले का कैंनी´ भी हो जाता था। कैंनी होना स्वीकार कर लेने पर वह गर्खा ´ के पद से गिर जाता था तथा अपनी जाति-बिरादरी से भी जाति-च्युत या बहिष्कृत कर दिया जाता था।
राजा और जमीन कमाने वालों के बीच संपर्क बनाए रखने के लिए कहीं-कहीं कर्मचारी भी नियुक्त होते थे, जो स्वयं जमीन के मालिक भी होते थे। इन्हें सयाना, बूढ़ा या थोकदार के नाम से जाना जाता था। पाली पछाऊं में – मनराल, बिष्ट व बंगारी सयाने माने जाते थे। काली कुमाऊं, जोहार तथा दारमा में वे बूढ़ा´ कहलाते थे । काली कुमाऊं में – तड़ागी, कार्की, बोरा और चौधरी चार बूढ़े थे। लेकिन महर और फर्त्याल के दो धड़े होने से ये चार के बदले आठ बनाए गए तथा उनकीआलें´ मुकर्रर की गई। पट्टी की चारों आलें इन चार धड़ों के नाम से जानी जाती थीं, जैसे – तड़ागी आल, कार्की आल आदि। अन्यत्र सयानों व बूढ़ों का पर थोकदार´ के नाम से प्रचलित था। थोकदार को सयानों व बूढ़ों से कुछ कम गिना जाता था। राज्य-प्रबंध में उसकी सम्मति भी नहीं ली जाती थी। वह ढोल, नक्कारे व निशान भी नहीं रख सकता था, जबकि सयानों व बूढ़ों की राजकाज चलाने में राय ली जाती थी। काली कुमाऊं के बूढ़ों की स्थिति और भी मजबूत थी। मनराल कौम के सयाने नक्कारे व निशान के अधिकारी थी। सयाने को गांव की थात में भोजन पाने, हर दूसरे साल प्रत्येक घर से एक रुपया व अनाज पाने का हक था। राजा केमांगा´ कर की तरह, उसका भी एक कर मुकर्रर था जिसे डाला´ कहते थे, जिसकी संख्या राजा द्वारा निर्धारित की जाती थी। उसके इलाके के लोगों को उसकी सेवा करने को भी बाध्य होना पड़ता था। सयानों को कर वसूल कर राजकोष में जमा करना पड़ता था। उन्हें और भी कई अधिकार प्राप्त थे। इस तरह इनके कुछ अधिकार और कर्तव्य दोनों निर्धारित थे। इनके अतिरिक्त एक पदकमीन´ का भी था, पर इसे केवल राजा को भेंट, बंगार व वर्दायश देनी पड़ती थी। उसको वेतन मिलता था, पर गांव में उसका हक नहीं होता था।
सयाना, बूढ़ा व थोकदार के नीचे प्रत्येक गांव में एक पधान (मालगुजार) था, जो आज भी है। उसका काम मालगुजारी (भूमि कर) वसूल करना होता था। यह पद मौरूसी (वंश परंपरागत) था। अपने गांव में पुलिस का कार्य भी वही करता था। पधान को पधानचारी के रूप में कुछ अतिरिक्त जमीन राजा की तरफ से मिली रहती थी जिसे खान्की जमीन´ कहा जाता था। पधान के नीचेकोटाल´ होता था, जिसे रखने व निकालने का अधिकार पधान को था। यह पधान का सहायक होता था तथा लिखने वगैरह का काम करता था। इनके अलावा प्रत्येक गांव में एक पहरी (चौकीदार) होता था, जिसका काम चिट्ठी-पत्री ले जाना, कर का अनाज इकट्ठा करना, गांव की पहरेदारी करना तथा अन्य तरह के छोटे-मोटे काम करना होता था, जो प्राय: शूद्र वर्ण का होता था। मजदूरी के रूप में उसे प्रत्येक परिवार से फसल के समय अनाज तथा त्यौहारों में कुछ दस्तूर मिलता था।
गोरखा व ब्रिटिश शासन की तरह ही चन्दों के समय में भी जमीन का मालिक राजा ही था, परन्तु राजा की आमदनी का स्रोत केवल मालगुजारी ही नहीं था। मालगुजारी (भूमिकर) तो कम थी। उपराऊं जमीन में एक तिहाई तथा तलाऊं (सिंचित) भूमि में से पैदावार का आधा अनाज राजकर´ के रूप में लिया जाता था वसूली दो प्रकार की होती थी। एक साल जमीन से कर वसूल किया जाता था तथा दूसरे साल मनुष्यों से धन लिया जाता था। तिजारत, खान, न्याय-व्यवस्था, जंगल की संमत्ति तथा कानून व्यवस्था के लिए भीराजकर´ लिए जाते थे। घी-कर के नाम से प्रत्येक भैंस पर सालाना चार आना कर लिया जाता था। खानों में राजा का आधा हिस्सा होता था। तराई-भावर में गाय-चराई´ के नाम से भी कर था। राजय शासन का खर्चा चलाने के लिएगृह-कर´/मौ-कर (House Tax) भी था। इन सब करों का नाम छत्तीस रकम´ वबत्तीस कलम´ था यद्यपि कहने को तो 68 कर थे, पर व्यवहार में ये सब नहीं लिए जाते थे। कुल पैदावार का कहीं एक तिहाई और कहीं उससे थोड़ा अधिक अनाज (विशेषकर चावल-गेहूं) `कूत´ के रूप में लिया जाता था। यद्यपि चन्दों ने कुमाऊं का 1/5 हिस्सा (पैदावार व उपजाऊ भूमि का) गूंठ में चढ़ा दिया था, फिर भी उनकी आमदनी अच्छी खासी थी और वे धनी थे।
काली कुमाऊं में जब राजा सोमचन्द ने सत्ता संभाली तो वहां महर और फरत्याल दो शक्तिशाली दल (धड़े) थे। विसुंग में उस समय पांच थोक (जातियां) – महर, फर्त्याल , देव, ढेक और करायत रहते थे। ये पांचों थोक दोनों दलों में लगभग आधे-आधे बंटे हुए थे। इनमें परस्पर बदलाव भी होता रहता था। राजा सोमचन्द ने इन दोनों दलों को राज्य शासन में बराबरी की भागीदारी देकर, दोनों में सन्तुलन एवं सामंजस्य बनाए रखते हुए अपना शासन तन्त्र चलाया। उन्होंने अपने शासन का श्रीगणेश चार बूढ़ों से प्रारंभ किया। ये चार बूढ़े आलों के थे – (1) कार्की (2) बोरा (3) चौधरी (4) तड़ागी। इनके ऊपर दो मण्डल थे – मल्ला मण्डल और तल्ला मण्डल। उपर्युक्त पांच थोकों और चार बूढ़ों के अलावा काली कुमाऊं की प्रजा निम्नांकित नामों से पुकारी जाती थी –
चार चौथानी – 1. देवलिया 2. सिमिल्टया पाण्डे 3. विण्डा के तेवारी और 4. डड्या के बिष्ट। कोई मण्डलिया के पाण्डे तथा सैंज्याल बिष्ट को भी चौथानियों में मानते हैं और कोई नहीं।
छ: घरिया (गौरिया) – जिनमें षट्कुली ब्राह्मणों के अलावा पन्त, पाण्डे, झा, जोशी, तेवाड़ी, भट्ट, पाठक आदि सम्भवत: शामिल थे।
बारह अधिकारी – 1. लडवाल 2. बैडवाल 3. खतेड़ी 4. महता 5. धौनी 6. लाड़ 7. म्वाल इत्यादि।
पचबिड़िया – चार चौथानी और छ: घरिया ब्राह्मणों के अलावा अन्य ब्राह्मण पचबिड़िया कहलाते थे।
खतीमन ब्राह्मण – छोटे ब्राह्मण इस नाम से पुकारे जाते थे। डोटी (नेपाल) में इनको खटक्वाला भी कहते हैं।
पौरी पन्द्रह विश्वा – शूद्र (हरिजन) प्रजा इस नाम से पुकारी जाती थी। उनको भी पंचायत में बुलाया जाता था।
इन सब दलों के नेताओं को राजदरबार में बुलाकर चन्द राजा उनसे राजकाज सम्बंधी राय लेते थे। बाद को सारी प्रजा महर व फरत्याल धड़ों में बांटी गई। अन्य सब धड़े उन दो बड़े धड़ों में विलीन हो गए। जब जिस दल का जोर या बहुमत होता था, उसी दल के नेता के हाथ में शासन की बागडोर देकर राज्य-प्रशासन चलाया जाता था। इस तरह चन्दों ने प्रारंभ से ही दलीय अथवा पंचायती राज्य-प्रणाली की नींव डाली थी, हालांकि उनका शासन एकाधिपत्य का शासन माना जाता है। कुमाऊं में सन् 1790 ई. से 1815 ई तक गोरखों का राज्य रहा जो अनीति एवं अत्याचारों से भरा पड़ा रहा। उन्होंने जनता पर तरह-तरह के जुल्म ढाये। चन्दों की शासन-व्यवस्था व कर-नीति को बदल दिया। `छत्तीस रकम व बत्तीय कलम´ की प्रथा उठायी गई तथा जनता पर ढेर सारे कर लगाए।
प्रत्येक आबाद बीसी (बीस नाली जमीन) पर एक रुपया कर´ लगाया तथा प्रत्येक बालिग आदमी से एक रुपया राजकर तथा प्रत्येक मवासे से दो रुपयेघुरही पिछली´ के नाम से सालाना कर लिए गए। ब्राह्मणों पर नए कर लगाए गए। चन्दों के शासन में ब्राह्मणों पर मालगुजारी न थी, परन्तु गोरखों ने प्रत्येक ब्राह्मण काश्तकार की एक-ज्यूला´ (छसे 13 एकड़ तक की जमीन) पर पांच रुपया मालगुजारी लगायी। गोरखों द्वारा प्रतिवर्ष हजारों दास-दासियां लाकर हरिद्वार की गोरखा-चौकी में बेचने को रखी जाती थीं, जिसमें 30 वर्ष तक के स्त्री व पुरुष बेचे जाते थे, जिनकी कीमत 10 से 30 रुपया तक होती थी। गोरखा अफसरों द्वारा धन मांगने पर न देने वाले के सारे कुटुम्ब को गिरफ्तार कर बेचा जाता था। न्याय-व्यवस्था, अंध-विश्वासों पर आधारित थी, जैसे -कढ़ाई के जलते तेल में आरोपी का हाथ डाला जाता था, हाथ जलने पर दोषी तथा न जलने पर निर्दोष समझा जाता था। यह कढ़ाई-दीप (दिव्य) न्याय कहा जाता था। छोटी-छोटी गलतियों पर प्राण-दण्ड व अंग-भंग कर निर्दयतापूर्वक मारा जाता था, जबकि चन्दों के समय में फांसियां बहुत कम होती थीं। इस तरह कुमाऊं में गोरखा शासन अपने अत्याचारों के कारणगोरख्योल´ के नाम से अलोकिप्रय रहा।
कुमाऊँ में ब्रिटिश शासन काल
सन् 1815 ई. से 1947 ई. तक कुमाऊं ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। अंग्रेजों ने जहां तक सम्भव हुआ, यहां के लोगों की रीति-रिवाजों व परम्पराओं पर कोई दखल नहीं दिया, अपितु एक ओर तो उन्होंने यहां पर अपने लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने का प्रयास किया और दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से फूट डालो और शासन करो´ की नीति अपनाते रहे। इसका ज्वलन्त उदाहरण लगान वसूली प्रथा में देखने को मिलता है। इसके लिए अंग्रेजों ने- पेशकार, पटवारी, थोकदार और पधान नियुक्त किए। थोकदार और पधान के पद स्थायी और वंशानुगत बनाए गए। इस तरह उन्होंने प्रत्येक गांव में लोगों का एक स्वामिभक्त वर्ग तैयार किया, जिसे सामान्य जनता से अलग कर दिया गया। पधान या मालगुजार गांव का मुखिया होता था। गांव से मालगुजारी (रकम) वसूल कर पटवारी को देने की जिम्मेदारी उसकी होती थी। मालगुजार को पांच रुपया प्रति सैकड़ा भी मिलता था। पधान के गांव के प्रति कुछ निश्चित कत्तZव्य भी होते थे। इस कार्य के बदले में पधान को कुछ अतिरिक्त जमीन भी दी जाती थी, जिसेहक पधानी´ (पधानचारी) कहा जाता था। पधान और राज्य के बीच मध्यस्थता कायम करने वाला अधिकारी थोकदार´ कहलाता था। थोकदारों को तीन रुपया प्रति सैकड़ा, उन गांवों की मालगुजारी से दिया जाता था, जिनके वेथोकदार´ होते थे। कुमाऊं के तत्कालीन शासक हेनरी रामजे ने नैनीताल के महरा गांव में थोकदारी का दस्तूर दस रुपया प्रति सैकड़ा कर दिया था। जिन्होंने ठीक काम नहीं किया, उनकी थोकदारियां भी जब्त कर दी गई। पेशकार (कानूनगो) राजस्व या मालगुजारी विभाग का छोटा कर्मचारी होता था, जो राजस्व वसूली की व्यवस्था देखता था। थोकदार और पधान गांव की शासन-व्यवस्था में पटवारी की सहायता करते थे। ये सभी कर्मचारी नीचे से ऊपर तक क्रमश: अपने ऊपर के अधिकारियों के प्रति अपने कामों के लिए जिम्मेदार रहते थे।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा का थाना सबसे पुराना
अंग्रेजों ने कुमाऊं की शासन-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किया। जहां कत्यूरी शासन में पुलिस बल की आवश्यकता न थी, वहीं चन्दों के समय पहाड़ में पुलिस का प्रबन्ध थोकदार व पधानों के हाथ में था तथा तराई-भावर में मेवाती व हैड़ी कौम के मुसलमान ही पुलिस का कार्य करते थे। गोरखों के समय फौजी शासन था, जो सूना और पुलिस दोनों का काम करते थे। अंग्रेजों ने शान्ति-व्यवस्था कायम करने के लिए पुलिस विभाग नियुक्त किए। पहाड़ में अल्मोड़ा का थाना सबसे पुराना है जो 1837 ई. में बना। उसके बाद नैनीताल का 1843 ई. में तथा रानीखेत का 1869-70 ई. में बना। कुमाऊं का प्रशासन इस प्रकार विभाजित था – कमिश्नर, कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर, डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, पटवारी, थोकदार तथा पधान। प्रान्तीय प्रशासन भी अनेक विभागों में विभाजित था, जिनमें – साधारण प्रशासन, जेल, अस्पताल, पुलिस, मालगुजारी, खेती, शिक्षा, न्याय, जंगलात, उद्योग-धंधे आदि प्रमुख थे। अंग्रेजों ने समय-समय पर भूमि का बन्दोबस्त (पैमाइश) किया तथा अलग-अलग किस्म की भूमि पर मालगुजारी की दरें निर्धारित कीं और जंगलात की नीति बनाई। हथियार रखने के लिए लाइसेंस-नीति, शिक्षण-नीति आदि निर्धारित की। अंग्रेजों ने यहां चाय बागान लगाए तथा आलू की खेती शुरू की। पहाड़ी लोगों को फौज में भर्ती कर अंग्रेजों ने उनके वीरोचित गुणों का लाभ उठाया और उन्हें अनुशासनिप्रय एवं स्वामिभक्त घोषित करते हुए अलग से `कुमाऊं रेजीमेंट´ की स्थापना कर डाली। फौज में भर्ती होने पर यहां के लोगों की आर्थिक दशा में यित्कंचित सुधार हुआ।
आजादी के बाद भी कुमाऊं की प्रशासनिक व्यवस्था कमोवेश ब्रिटिश शासन-पद्धति के अनुरूप ही रही, परन्तु भूमि की सीलिंग तथा जमींदारी प्रथा उन्मूलन एवं पंचायती राज्य-व्यवस्था का प्रभाव यहां भी पड़ा। थोकदार एवं पधान प्रभावहीन हो गए। उनको प्रदान किए गए विशेष अधिकार व सुविधाएं छीन ली गई। उनका स्थान ग्राम-सभापति एवं पंचायत के सरपंच, वन-पंचायत के सरपंच आदि ने ले लिया, परन्तु उनमें से अधिकांश का अपने क्षेत्रों में प्रभाव बना रहा।
अंग्रेजी शासन काल तक, जहां कुमाऊं की अर्थव्यवस्था पूर्णत: कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर थी, अब उसमें धनादेश अर्थ-व्यवस्था´ (पोस्टल या मनीआर्डर इकॉनमी) भी जुड़ गई है। कुमाऊंनी समाज पहले अपने जीवनयापन के लिए पूर्णतया कृषि पर निर्भर था। साल भर के खाने के लिए खेतों से पर्याप्त मात्रा में अनाज का उत्पादन हो जाता था, यहां तक कि अनाज बेचकर भी लोग अपनी रकम-कलम चला लेते थे। आवश्यकताएं कम थीं। लोग दैनिक उपयोग की वस्तुओं को घरों में ही बना लेते थे। रिंगालों की चटाइयां, मोथे के फीणे (चटाई), कुथले, टोकरी, रिस्सयां, कण्डी, मुरेठे, सींका (छींका), म्वाल, खाने-पीने के बर्तन एवं खेती के सभी उपकरण यहीं तैयार होते थे। यहां कई जगहों में लोहे, तांबे व शीशे की खानें थीं। चूने का पत्थर पर्याप्त मात्रा में पाए जाने के कारण गौलापार (हल्द्वानी) में चूने की भटि्टयां थीं। केवल नमक के लिए लोग हल्द्वानी की मण्डी जाया करते थे( परन्तु वर्तमान में न केवल सामाजिक संरचना में बदलाव आया है अपितु आर्थिक जीवन भी पूर्णतया बदल चुका है। कुमाऊं में सरकारी अस्पतालों के खुलने से पूर्व वैद्यक व्यवसाय पूर्णत: विकसित अवस्था में था। हजारों प्रकार की जड़ी-बूटियों से वैद्य लोग घरों में ही आयुर्वेदिक दवाएं बनाते थे।ढ्यर लग´ एक ऐसी लता थी, जिसके लेप से पशुओं एवं मनुष्यों की टूटी हडि्डयां भी जुड़ जाती थीं। वैज्ञानिक प्रगति, शिक्षा के प्रसार एवं औद्योगीकरण के प्रभाव के फलस्वरूप कुमाऊं में भी परिवर्तन की लहर तेजी से फैल रही है।
सन्दर्भ :-
उत्तरांचल हिमालय (ऋषि-1), डॉ. एम. पी. जोशी, संस्करण 1993, पृ. 184.
कुमाऊं का इतिहास – पं. बदरी दत्त पाण्डे, पृ. 369-380.
Source: प्रोफेसर शेर सिंह बिष्ट, डी. लिट्, कुमाऊं विश्वविद्यालय, एस.एस.जे. परिसर, अल्मोड़ा (श्री नन्दा स्मारिका 2010)