कुमाऊंनी होली अपनी ख़ास परम्पराओं और सांस्कृतिक महत्व के कारण दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यहाँ की बैठकी और खड़ी होली गायन की परम्परा हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। कुमाऊँ में बैठकी होली की शुरुआत पौष माह के पहले रविवार से और खड़ी होली की शुरुआत फाल्गुन शुक्ल एकादशी को ‘चीर बंधन‘ ( Cheer Bandhan ) से होती है। चीर बंधन कुमाऊंनी होली की एक विशिष्ट परम्परा है, जिसके बिना यहाँ खड़ी होली अधूरी मानी जाती है। आईये जानते हैं इस परम्परा के बारे में –
चीर बंधन क्या है ?
उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में मनाई जाने वाली होली बेहद लोकप्रिय है। यहाँ होली रंग-गुलाल से कम बल्कि राग और फाग के साथ गीत एवं नृत्यों से ज्यादा खेली जाती है। पारंपरिक लोक वाद्य की धुन पर लय और ताल के साथ खड़ी होली गीतों को गाने की परम्परा चंद राजाओं के शासनकाल से चली आ रही है। जो आज भी वहीं पुराने अंदाज के साथ संपन्न होती है। यहाँ होली के दौरान विभिन्न लोक परम्पराओं का निर्वहन किया जाता है। जिसमें चीर बंधन ( Cheer Bandhan) की परम्परा बेहद ख़ास है। इसी चीर बाँधने से कुमाउनी खड़ी होली की शुरुआत होती है।
होलिकाष्टमी अथवा एकादशी तिथि को किसी निर्धारित मंदिर या सार्वजानिक स्थल पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ भद्रारहित शुभमुहूर्त में पद्म यानी पय्याँ वृक्ष की शाखा के साथ लम्बे स्तम्भ पर रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े बांधे जाते हैं, यह प्रक्रिया ‘चीर बंधन‘ या ‘चीर बांधना‘ कहलाती है। इसके बाद यहाँ खड़ी होली की आधिकारिक शुरुआत हो जाती है। इस दौरान कैले बाँधी चीर हो रघुनन्दन राजा, सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन जैसे पारम्परिक होली गीत गाये जाते हैं। चीर को अबीर, गुलाल चढ़ाकर लोग एक दूसरे को लगाते हैं और इसके बाद रंगों वाली होली प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ पर चीर बाँधी जाती है उस स्थल को होली का अखाड़ा कहते हैं।
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- होलिकाष्टमी को चीर बंधन : कुमाऊं में जहां होली का अखाड़ा किसी मंदिर के प्रांगण में होता है, वहां चीर होलिकाष्टमी के दिन बाँधी जाती है।
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- एकादशी तिथि को चीर बंधन : जहाँ होली का अखाड़ा किसी मंदिर में न होकर सार्वजनिक स्थान पर होता है, वहां चीर फाल्गुन शुक्ल एकादशी तिथि को बाँधी जाती है। गांव और शहर दोनों जगह मुख्यतः इसी तिथि को चीर बंधन होता है।
चीर फिराने की परम्परा
चीर फिराने का अर्थ है चीर को जगह-जगह घुमाना। कुमाऊं में होली के दौरान चीर को घर-घर घुमाई जाती है। होल्यार लोग अपने पारंपरिक वेशभूषा यानी सफ़ेद कुर्ता-पजामा और पारम्परिक टोपी पहनकर होली गीतों को गाते हुए गांव के हर घर तक पहुँचते हैं। जहाँ उनका खूब स्वागत होता है। घर के प्रांगण में चीर के साथ होली गीत गाये जाते हैं और घर के स्वामी द्वारा चीर का पूजन किया जाता है और भेंट दी जाती है। वहीं होल्यारों को गुड़ की भेली देने की एक विशिष्ट परम्परा है। चाय, पानी, आलू के गुटके होल्यारों को खिलाये जाते हैं। तत्पश्चात किसी वरिष्ठ व्यक्ति द्वारा ‘गावैं खेलों देवैं आशीष, हो होलक रे‘ के शुभ वचनों के साथ घर और उसके मुखिया, समस्त परिवार जनों को आशीष के बोल दिए जाते हैं। उसके बाद चीर के साथ होली दूसरे घर की ओर बढ़ जाती है। दिन भर होल्यारों के साथ चीर इसी तरह जगह-जगह घूमती है और अंत में शाम को चीर होली के अखाड़े तक पहुँचना अनिवार्य है।
चीर हरण करने की परम्परा
कुमाऊंनी होली में चीर हरण करने की भी परम्परा है। यानी कोई दूसरे गांव के लोग इस चीर को चोरी कर अपने यहाँ ले जा सकते हैं और अपने यहाँ होली प्रारम्भ कर सकते हैं। वहीं दूसरी ओर जिस अखाड़े से होली की चीर का हरण यानि चोरी हो गई है उससे अगले वर्ष से चीर बांधने का अधिकार छिन जाता है। वह अगली बार से अपने अखाड़े में चीर बंधन नहीं कर सकता है। वहीं चीर बांधने का अधिकार हरण करने वाले का पास चला जाता है। अगले साल से उन्हें लगातार चीर बांधकर होली का आयोजन करना होता है। इसी भय से होली के अखाड़े में चीर की विशेष सुरक्षा की जाती है। यदि सम्बंधित अखाड़े को पुनः चीर बांधकर होली आयोजन करने का अधिकार प्राप्त करना है तो उसे भी वही चीर या अन्य अखाड़ों से चीर हरण करके लाना होता है। लेकिन वर्तमान में यह परम्परा आपसी सद्भाव को देखते हुए लोगों से स्वतः ही समाप्त कर दी है।
चीर लगाने की परम्परा
चीर लगाने का अर्थ ‘चीर दहन’ से है। फाल्गुन पूर्णिमा की रात को पंचांग की गणना के आधार पर चीर दहन किया जाता है। किसी निर्धारित स्थल पर चीर को ले जाया जाता है। कपड़े की करतनें उतार दी जाती हैं और पूर्ण विधि-विधान के साथ चीर दहन की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है। लोगों में चीर की धड़ें वितरित की जाती हैं, जिसे लोग अपने वस्त्रों और घरों पर टांगते हैं। मान्यता है इसे लगाने से नकारात्मक शक्तियों का हरण होता है और घर में शुभ-शांति का वास होता है।
इसके अगले दिन छरड़ी मनाई जाती है। यानी जब पूरे देश में होली मनाई जाती है उस दिन को पहाड़वासी छरड़ी कहते हैं। लोग सुबह से ही खूब होली खेलते हैं। दोपहर होते हैं छरड़ी की समाप्ति होती है। उसके बाद लोग अपने-अपने नौले-धारों पर जाकर अपने एकादशी से पहने कपड़ों को उतारते हैं और उनकी धुलाई कर स्नान करते हैं। अपनी परम्परानुसार अगले दिन होली के अखाड़े में होली पूजन का कार्यक्रम होता है। वहां पारम्परिक ताम्बे की तौलियों में आटे का हलवा और आलू के गुटके बनाये जाते हैं। सभी लोगों में हलवा वितरित किया जाता है और होलिका देवी की जयकारों के साथ होली की समाप्ति होती है।
पहाड़ों में होली का यह उत्सव आपसी भाईचारे और अपनी पुरानी परम्पराओं से जुड़े रहने का एक ख़ास पर्व है। यह पर्व पहाड़ वासियों को उनकी एकता का अहसास कराता है। उत्तराखंड के लोगों के लिए यह ऐसा अवसर है जहाँ वे एक साथ एकत्रित होकर होली का आनंद लेते हैं।