कुमाउनी कविता के कीर्तिस्तंभ।

Admin

लोकरत्न पन्त ’गुमानी’, गौरीदत्त पाँडे ’गौर्दा’, चारुचन्द्र पांडे, गिरीशचन्द्र तिवारी ’गिर्दा’ और शेर सिंह बिष्ट ’शेरदा’ कुमाऊनी कविता के कीर्तिस्तंभ हैं। इनमें से प्रत्येक कवि का परिवेश अलग-अलग है। इसके कारण इनकी भावधारा और शिल्प में भी बहुत भिन्नता है। ’गुमानि’ कुमाऊँ के अभिजात वर्गीय कवि हैं। प्रतिष्ठित कुल में जन्म और ज्योतिष आदि में निष्णात होने का कारण उनका संपर्क समकालीन प्रतिष्ठित लोगों के साथ रहा। यही नहीं उस युग में कविता का जो दरबारी रूप था उसका व्यापक प्रभाव, कहीं कहीं पांडित्य और बहुज्ञता का प्रदर्शन भी उनकी कविता में प्रतिबिंबित है। हमारे बचपन में वृद्धजन जब-तब ’गुमानि’ जी की कविता का उदाहरण देते रहते थे।

गौरीदत्त पाँडे ’गौर्दा’

’गौर्दा’ स्वाधीनता संघर्ष के युग के लोकप्रिय कवि है। फलतः जहाँ ’गुमानी‘ में  दरबारी परंपरा के अवशेष मिलते हैं,  गौर्दा उनसे सर्वथा मुक्त हैं। प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार संबद्ध होने के बावजूद उनकी कविता में कहीं भी ’गुमानि’ ज्यू क ’थातिन में उत्तम उप्रड़ो’ छ’ जैसा  जातिगत प्रतिष्ठा बोध नहीं लक्षित होता। युग और परिवेश गत अन्तर के कारण उनमें उदारता, व्यापक दृष्टि सामाजिक परिवर्तन की चाह, प्रकृति और संस्कृति के संरक्षण की ललक दिखाई देती है।

गिरीशचन्द्र तिवारी ’गिर्दा’

’गिर्दा’ स्वाधीनता के बाद उपजे मोह भंग के युग के कवि हैं। हम सब लोगों की कल्पना थी कि  स्वाधीनता के बाद भारत में अमन-चैन होगा। हमारे नेता घर के सयाने लोगों की तरह देश को संवारने को प्रयत्न करेंगे। पर जब देखा कि अंग्रेज तो उच्छिष्ट तब भी छोड़ जाते थे, पर ये तो बर्तन भांडे ही नहीं चूल्हे को भी खा जाने के लिए उतावले हैं, तो चेतना शील मानस में हताशा और अविश्वास स्वाभाविक है। गिरदा सामान्य मध्य वर्गीय व्यक्ति की तरह की तरह लात खा कर टांगों में सिर छिपा अहं ब्रह्मास्मि का जप करने वाले व्यक्ति नहीं थे। यही कारण है कि वे सामाजिक परंपराओं के सारे बंधनों को ध्वस्त कर उत्पीड़ित समाज के सहचर के रूप में उभरे। वे न केवल कविता के माध्यम से अपितु जन संघर्ष में सक्रिय भागीदारी के मामले में भी बेजोड़ हैं। इस प्रकार वे न केवल हिमालय के अपितु भारत के क्रान्तिकारी रचनाकारों में एक हैं।

शेर सिंह बिष्ट ’शेरदा’

शेरदा’ पारिवारिक दृष्टि से ही नहीं और परिवेश की दृष्टि से भी इन तीनों से सर्वथा भिन्न हैं। पहाड़ की हरी भरी प्रकृति  के आंगन से बाहर आते ही जिस बच्चे को अपना पेट पालने   के लिए पाँच वर्ष की अवस्था में  दूसरे के घर  बर्तन मलने पड़े हों वह बालक न ‘गौरदा‘ है सकता है  और न ‘गुमानी‘। वह निश्चय ही कुछ और ही होगा। कबीर की तरह अनपढ़, कालिदास की तरह प्रकृति में रमा हुआ, न कोई बनावट, न कवि होने का बोध , केवल शेरदा ‘अनपढ़‘। कुमाऊँ  के  जन-जन का अपना ’शेरदा’। ’ओ परुवा बौज्यू चपल के ल्या छा यस’।

जब लेखक ने शेरदा अनपढ़ को मंच में देखा

जब-जब मंच पर शेरदा को देखता था,  मेरा मन में बार बार यह अनुगूँज होती थी  की शेरदा  तुम्हारे अंदर तो एक महान कवि छिपा हुआ है, पर  लोगों ने  तुम्हारे अंतस में  छिपे  उस महाकवि को जगाने की चेष्टा नहीं की और तुम भी अपने ग्रामीण भोले पन में ‘ चपल के ल्याछा यस‘ से  उभरने वाली  श्रोताओं की करतल ध्वनियों  में ही खो कर रह गये। ’को छै तु’ जैसी  भावमय और आँखों में अद्भुत सौन्दर्य मूर्ति जगा देने वाली कविता में  भी  आपके श्रोताओं  का ध्यान ‘दाबणी‘, ‘खड़ूणी‘, ‘च्यापणी‘ जैसी  उन्मद   अभिव्यक्तियों  की ऐंद्रिकता  की  ओर नहीं गया और इन शब्दों के  भीतर छिपी  इतनी उत्कृष्ट  कविता को भी  श्रोताओं ने  हंसते हसंते  एक कोने में डाल दिया।

पार्वती को मैतुड़ा देश शेरदा की एक और उत्कृष्ट रचना है। उस में तो ऐसा लगता है कि अलंकारों में भी मैं पहले, मैं पहले की स्पर्धा हो रही है। ऐसा बिम्ब विधान  किसी रस सिद्ध कवीश्वर में ही सम्भव है। संस्कृत काव्यलोचन के महान आचार्य आनंद वर्धन ने अपने  ग्रंथ  धवनयालोक में लिखा है जब कवि भाव में तन्मय होता है  तब उसकी अभिव्यक्ति में  अलंकार ‘‘ मैं पहले, मैं पहले सी प्रतिस्पर्धा करते हुए स्वयं समाहित हो जाते हैं। (’रस विनिवेशित चेतसा अलंकारादयः अहं पूर्वकया परापतन्ति’) ऐसी ही कविता महान कविता होती है।

जब भी मैं कालिदास की रचनाओं में निमग्न हुआ मुझे बार-बार उनकी पृष्ठभूमि भी हमारे शेरदा की पृष्ठभूमि  की तरह ’अनपढ़’ ही लगी। यदि वे पढ़े लिखे होते तो वे भी माध, भारवि, और दंडी की तरह रीति सिद्ध कवि हो सकते थे  पर उनका ‘कालिदास होना असंभव था। कालिदास में उपमाओं  की जो बहार है  वह तो केवल लोक के साथ एकाकार  कवि में ही सम्भव है। यदि वे लोक लोक के साथ एकाकार नहीं होते तो क्या पता उनको भी केशवदास की तरह उगता सूरज किसी कापालिक के रक्त रंजित खप्पर सा दिखने लगता। इसका एक उदाहरण देखिये:

जंगल में खिली हुई बुरूँस के फूल  शेरदा ने भी देखे और कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने भी। शेरदा को तो उस फूल में हरा घाघरा और लाल ब्लाउज पहने अपनी ‘हीरू (प्रेमिका)  दिखाई दी और पन्त जी को ऐसा लगा कि जैसे सारे जंगल में आग लग गयी हो। पन्त जी छायावाद के महान कवि हैं और ‘शेरदा‘ सचमुच अनपढ़ हैं। 

पाठक खुद ही समझ सकते हैं कि बुरांस का फूलना जंगल में आग लगने सा लगता है या मेरी ‘हीरू‘ सा।

इस में पंत जी का उतना दोष नहीं है, जितना उनके अध्ययन का। बुरूँस का फूल तो उनको भी अपनी  हीरू (प्रेमिका) जैसा ही लगता, शायद शेरदा से भी अधिक। क्योंकि  शेरदा की हीरू तो  घर में थी पर पंत जी तो जीवन भर ‘हीरू‘ के लिए तरसते रह गए। उन में तो   शेरदा से भी सौंदर्य संवेदना होनी चाहिए थी, पर क्या करें  उनके  मस्तिष्क में तो बिहारी की सतसई संक्रमित हो गयी थी फलतः उनको भी  बिहारी के पलाश की तरह  बुराँस का  फूलना जंगल में आग लगने जैसा दिखाई देने लगा।

फिरि घर को नूतन पथिक चलै चकित चित भागि
फूल्यो देखि पलाश वन समुहै समुझि दवागि।

पंत जी यह भूल गए कि बिहारी  कविता को समझने से पहले उसकी प्रसंगोद्भावना, या कवि ने  किस प्रसंग का आधार लिया है का भावन करना  आवश्यक है।  कवि द्वारा  कल्पित प्रसंग  में एक सद्य विवाहित युवक है कि जिसके पिता जी उसे रोजगार के लिए  परदेश  जाने का आदेश देते हैं। अपनी नवेली को छोड़ कर परदेश जाने का मन तो  भगवान शंकर का भी नहीं करेगा, फिर वह तो सामान्य  मानव!। पिता की आज्ञा से विवश, घर से चला। राह चलते घर वापस लौटने का उपाय सोचने लगा। मार्ग में  पलाश खिला हुआ था। बेस उसे लौटने का  बहाना मिल गया की जंगल में तो आग लगी है, आगे कैसे जाता? इस पूरे प्रसंग  को समझे बिना पंत जी ने चुपचाप बिहारी  को लपक लिया।

यदि वे ‘शेरदा‘ की तरह ही अनपढ़ होते तो बिहारी कैसे फटकता?

’मौत और मनखी’ शेरदा कि एक और महान कविता है। उसको पढ़ते ही मुझे में अंग्रेजी साहित्य के महान कवि शैली की माब ओफ ऐनर्की कविता याद आने लगती है। दोनों में संवेदना की समान गहराई है।

शेरदाः

तू जग सेउनै रै है, मैं जग व्यूँजूनै रऊँ
तू चित जगूनै रैहै, मैं चित निमूनै रऊँ
तू डोलिन ल्हि जाने रै है, मैं डालन देखीनै रऊँ
तु फोचिन लुटनै रै है, मैं कोखिन खलनै रऊँ
तू कूनै है मारि हालौ, बतूनै कन का मरूँ
तू हारै छै मैं हारूँ

शैली

Rise like Lions after slumber
In unvanquishable number]
Shake your chains to earth like dew
Which in sleep had fallen on you&
Ye are many — they are few

फिर तो कभी उनकी ‘जाँठिक घुङुर‘ के घूँघर बजाने लगते हैं तो कभी वे बालम सिंह जनौटी की संगति में ‘मेरि फचैक‘ लगाने में भी देर नहीं करते ।

उनका कविता संग्रह ‘शेरदा समग्र‘ प्रयाग जोशी  द्वारा  उनसे  बार-बार अपनी सारी रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की देन है। फलतः इस संग्रह में उनकी लगभग सभी रचनाएँ: तुकबंदी, उपदेशपरक छंद, लोगों को हंसाने के लिए  लिखी गयी मंचीय कविताएँ, चुटकुले  और कतिपय उच्चकोटि की रससिक्त कविताएँ  भी, समाहित हैं।

इस संग्रह के प्रकाशन से पूर्व  उन्होंने  समीक्षा और सुझावों के लिए पांडुलिपि मुझे दी। उस कविता  संकलन पर मनन पर मुझे लगा  कि इस संग्रह में कवि की विकास यात्रा तो झलकती है, पर उनकी काव्य चेतना का उत्कृष्ट रूप  संग्रह में कहीं खो सा गया है। अतः मैंने उनसे निवेदन किया  कि ‘‘इस संग्रह में  आपका मूल कवि कहीं खो गया है  अतः जो कविताएँ आपको  सब से अच्छी लगती हैं, उनका चयन करते हुए एक संग्रह और प्रकाशित करें।‘‘

अपनी सर्वाधिक प्रिय  कविताओं का संकलन करते हुए  उन्हें आभास हुआ कि मंचीय  कविताओं के चक्कर में  उनकी काव्य प्रतिभा  उतनी फलीभूत नहीं हुई  की जितनी  कि  सम्भव थी।  नए  संकलन ‘शेरदा संचयन‘ में में बीस-पचीस  ऐसी  कविताएँ अवश्य हैं  जिनमें   उनके अन्तर्निहित कवित्व का प्रकाशमान रूप विद्यमान है ।

शेरदा अहंकार रहित सरल व्यक्ति थे। सभी पर्वतीय जन उनकी कविताओं के प्रति सम्मोहित थे और शेरदा ने भी अपनी  काव्य  रचना की प्रेरणा का श्रेय पर्वतीय जनों को दिया। उनके ही शब्दों में –

द्वि हातैल ताइ बजै सौ हात मली चढ़ा।
मेरि पहाड़ैकि जनता मैं कैं कवि तुमूल बणा।

( दो हाथों से ताली बजा कर तुमने मुझे सौ हाथ ऊपर चढ़ाया। मेरे पहाड़ की जनता तुमने ही मुझे कवि बनाया।)

Advaita Ashrama, Mayavati | अद्वैत आश्रम, मायावती लोहाघाट, उत्तराखंड

लेख : श्री तारा चंद्र त्रिपाठी

Leave a comment

रतन टाटा जी के चुनिंदा कोट्स- साक्षी और महेंद्र सिंह धोनी पहुंचे अपने पैतृक गांव उत्तराखंड। शिवलिंग पूजा – क्या आप जानते हैं कहाँ से शुरू हुई लिंग पूजा ?