उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में प्रकृति और संस्कृति का अनोखा संगम हर किसी का मन मोह लेता है, देवी-देवताओं का वास और उनके ऊपर लोगों की अपार श्रद्धा यहां के वातावरण को बेहद शांत और सौम्य बनाती है। न सिर्फ संस्कृति, जलवायु, पर्वत, झरने, खानपान बल्कि यहां का सादगी से भरा पहनावा भी हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है।
बात अगर पिछौड़ी/ पिछौड़ा या पिछौड़ की करें तो यह एक साधारण सा दुपट्टा नहीं बल्कि कुमाऊँ के लोगों की भावनाओं से जुड़ा हुआ है एक पवित्र ऐसा वस्त्र है जो यहाँ की महिलाओं के लिए सुहाग, शुभ और संस्कृति का प्रतीक है। वर्तमान में इसकी लोकप्रियता महिलाओं में बढ़ चुकी है, जो अब सिर्फ कुमाऊँ तक सीमित नहीं रह गया है। समस्त उत्तराखंड की महिलायें पिछौड़े को बड़े शान से ओढ़ती हैं। बॉलीवुड की अभिनेत्री तक इस पीले, केसरी, दुपट्टे में नजर आ जायेंगे। साल 2024 में दिग्गज क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी की पत्नी साक्षी ने जब अनंत अंबानी की शादी में कुमाउनी पिछौड़े को ओढ़ा तो यह पिछौड़ा काफी चर्चा में रहा था।
उत्तराखंड में माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह हो या प्रेम विवाह या ऑनलाइन मैट्रिमोनियल साइट्स (जैसे Byoli.com, शादी डॉट कॉम आदि ) से तय विवाह हो, दुल्हन का वेडिंग डेस्टिनेशन अगर पहाड़ी क्षेत्र में है तो वे कोशिश करते हैं कुछ पहनावा भी पहाड़ी महिलाओं की तरह हो, जो बेहद सादगीपूर्ण नजर आता है।
कुमाऊँ में पिछौड़ी का महत्व
कुमाऊँ में इसे पहले पिछौड़ कहा जाता था, आज भी स्थानीय भाषा में इसे पिछौड़ ही कहते हैं। जो दो शब्द पिछ और ओड़ के संयोजन से बना हुआ है। कुमाउनी में पिछ का अर्थ के पीछे या पीछे की तरफ (बैकसाइड) और औढ़ का अर्थ होता है ओढ़ना या ढकना। कुमाऊँ में विवाह के समय पहली बार दुल्हन को पिछौड़ी सिर पर उड़ाई जाती है, जो उसके नए जीवन की शुरुआत के अन्य प्रतीकों के साथ महत्वपूर्ण माना जाता है।
उत्तराखंड के लोकजीवन में पिछौड़ा (Pichoda) संपूर्णता का प्रतीक है। इसमें लाल रंग वैवाहिक जीवन की संयुक्तता, स्वास्थ्य तथा संपन्नता का प्रतीक है जबकि सुनहरा पीला रंग भौतिक जगत से जुड़ाव दर्शाता है।
पिछोड़ी का डिजाइन बाकि अन्य दुपट्टे या ओढ़नी से अलग रहता है, इसके कपड़े का टेक्स्चर और डिजाइन इसे एकदम अलग बनाता है, आज के फ़ैशन वाले दौर में तो इसके अनगिनत डिजाइन तैयार हो चुके हैं। सालों पुराना यह पहाड़ी ट्रेडिशनल दुपट्टा आज सबका ध्यान अपनी ओर खींचता है।
केसरी, लाल व पीले रंग के इस दुपट्टे को शुभ कार्यों में पहना जाता है, आज दुल्हन भले ही कितने महंगे डिजाइनर लहंगे बनवा ले लेकिन पिछौड़ को नजरअंदाज नहीं कर रहीं हैं, या कहें लहंगे के दुपट्टे को पिछौड़ी ने रिप्लेस किया है।
कुमाऊँनी नथ का महत्व
कुमाऊँ में पिछौड़ी के साथ नथ (Nath) का भी बड़ा महत्व है, यह गहना भी सिर्फ शादीशुदा महिलाओं द्वारा पहना जाता है, लगभग सभी मांगल कार्यों में नथ पहनी जाती है। वहीं विवाह जैसे शुभ अवसर में दुल्हन को नथ पहनने की यह परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है। नथ यहाँ की महिलाओं की शोभा, परिवार की सम्पन्नता और यहाँ की समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है। कहते हैं पुराने जमाने में जो परिवार जितना सम्पन्न होता था उसी हिसाब के उस परिवार की महिलाओं के नथ का वजन और आकार होता था। सम्पन्नता के साथ नथ का आकार और वज़न बढ़ते जाता था।
कुमाऊँनी महिलाओं द्वारा पहली जाने वाली पारम्परिक नथ की गोलाई करीब 35 से 40 सेंटीमीटर और वजन 3 से 5 तोला तक होता था लेकिन बदलते दौर में कम गोलाई के नथ प्रचलन में हैं। modern kumaoni nath वर्तमान में पहाड़ी नथ को और भी आकर्षित बनाने के लिए इसे लाल मूंगे, मोती व अन्य रत्नों के साथ डिजाइन किया जाता है, हालांकि गढ़वाल में भी नथ प्रसिद्ध है, जिसका डिजाइन कुमाऊनी नथ से थोड़ा अलग रहता है।
कुमाऊंनी नथ की विशेषता बताएं तो इसमें मोतियों और नगों का काम किया जाता है, वहीं गढ़वाली नथ भी भारी व बड़ी होती है जिसमें फूल पत्तियों की नक्काशी और लाल नग जड़े जाते हैं। आज के दौर की बात करें तो पहाड़ी नथ न सिर्फ एक आभूषण है, बल्कि यह सांस्कृतिक पहचान बन चुका है। गढ़वाली, कुमाऊंनी नथों की डिजाइन, शहरों में भी अब काफी पसंद की जा रही है।
उत्तराखंड में देखा जाए तो कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी के अलावा रंग और भोटिया कम्युनिटी भी हैं, जो चांदी के गहनों को प्राथमिकता देते हैं, चांदी की नथ का डिजाइन भी बेहद आकर्षक होता है। पहाड़ी चाहे उत्तराखंड के हों या हिमाचल के, गहनों का चलन और विविधता काफी देखने को मिलती है। हंसुली, नथ, गलोबंद, पौंछि, बुलाक, पौजे जैसे गहने पहाड़ की देन है।
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