आप सभी जानते हैं विश्व प्रसिद्ध नैनीताल (Nainital) झील की खोज का श्रेय अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन को जाता है। वह सन 1840-41 के मध्य यहाँ पहुंचा था। इससे पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल इस इलाके में पहुंचे थे, उन्होंने इस खूबसूरत झील की जानकारी किसी को नहीं दी ताकि इसकी खूबसूरती बरक़रार रहे। अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन ने इस खूबसूरत जगह को दुनिया के सामने रखा। तब इस नैनीताल का पूरा स्वामित्व यहाँ के रहवासी नैनुवां उर्फ़ नैन सिंह के पास था। कैसे बैरन ने इसका स्वामित्व अपने नाम कर लिया, वरिष्ठ सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी उदय टम्टा जी ने इस प्रकार लिखा है –
नैनीताल की खोज
बैरन एक अंग्रेज था, जिसकी शाहजहांपुर में एक छोटी सी डिस्टिलरी थी, जिसमें वह अंग्रेज अधिकारियों व कर्मचारियों के सेवन के लिए मामूली सी ब्रुअरी में शराब का उत्पादन करता था। व्यवसायी होने के साथ-साथ वह एक प्रकृति प्रेमी व अन्वेषक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। एक बार वह पहाड़ की यात्रा पर निकल पड़ा। शाहजहांपुर में लम्बे समय तक रहने के कारण वह हिंदी अच्छी तरह से समझता था तथा कुछ् कुछ बोल भी लेता था। वह साहसी तो था ही, कुछ मजदूरों के साथ रानीबाग से ही मार्ग विहीन जंगल से कठिन चढ़ाई पार करते हुए किसी तरह नैणताल, जिसे अब नैनीताल के नाम से जाना जाता है, के ऊपर के ऊंचे डांडे में पहुंच गया। उसने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो घने बाँझ वृक्षों की ओट में एक सुन्दर नीला तालाब नज़र आया, जिसके किनारे काई से पटे पड़े थे तथा चारों ओर पक्षियों का कलरव गूंज रहा था, जिसकी मधुर ध्वनि ऊँचे डांडे तक भी पहुंच रही थी।
वहां से भी ताल तक कोई रास्ता नहीं था। वह किसी तरह पेड़ों की साख व बाभिला घास के सहारे नीचे उतरा। ताल की सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया। इस प्रकार 1840-41 में बाहरी दुनियां के लिए अज्ञात नैनीताल की ‘खोज’ बैरन के हाथों हो गई ! वहां पर उसे कोई आदमी नहीं मिला। नीचे उतरते हुए उसे किसी बस्ती के लोगों से उसे पता चला कि पूरे ताल व इलाके का मालिक नैनुवां उर्फ़ नैनसिंह नाम का कोई व्यक्ति था, जो नजदीक के किसी गांव में रहता था। उसनें नैनुवां से संपर्क किया। नैनसिंह हिंदी नहीं जानता था, और बैरन भी पहाड़ी नहीं समझता था। इसलिए किसी हिंदी जानने वाले के माध्यम से उनमें कुछ बातचीत हुई।
जब बैरन ने ताल में डूबा देने की धमकी दे डाली
अगली बार फिर गर्मी के मौसम में बैरन एक बढई व एक नाविक को लेकर बनी बनाई, खुले हिस्सों वाली नाव के साथ वहां पहुंचा। उसने आदमी भेजकर नैनसिंह को बुलवाया। नैनसिंह को उसने अपने साथ नाव में बिठा लिया। उसने बीच ताल में पहुँच कर पूरा इलाका खरीदने का प्रस्ताव नैनसिंह के सामने रखा । यद्यपि नैनसिंह के लिए इस ताल व क्षेत्र का कोई आर्थिक महत्व नहीं था, तथापि वह पूर्वजों की इस थाती को बेचने को तैयार नहीं हुआ। इस पर बैरन ने उसे ताल में डुबा देने की धमकी दे डाली और पहिले से तैयार कागज में उसका अंगूठा लगवा लिया। इस तरह पहिले बैरन, फिर ईस्ट इंडिया कंपनी व कालांतर में अंग्रेज सरकार इसकी मालिक बन गई। उसके बाद तो अंग्रेजों ने नैनीताल का जो-जो किया वह सामने ही है।
नैनीताल और नैना देवी का मंदिर
यहां पर नैना देवी का एक बहुत ही छोटा थान (देवस्थान, भव्य मंदिर नहीं) पहिले से ही था, जिसमें कुछ छोटे से त्रिशूल व लोहे के छोटे से दीये थे। यह थान वर्तमान मंदिर से ऊपर की पहाड़ी पर था। पुराना नैना देवी का उक्त थान 1880 के भयंकर भूस्खलन में नेस्तनाबूंद हो गया था, जिसके कुछ दीये वर्तमान मंदिर के पास बरामद हो गए थे। अतः इसी स्थान पर 1882 को जेठ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन जगन्नाथ शाह व उनके सहयोगियों ने मंदिर की स्थापना की।
यह तो रहा ऐतिहासिक विवरण। इसके सामानांतर ही नैनीताल की स्थापना के संबंध में मानस खंड, जिसे कुछ लोग स्कंद पुराण का ही एक भाग मानते हैं, में एक और ही कहानी चलती है। इसके अनुसार कहा जाता है कि एक बार सप्त ऋषियों में से तीन ऋषि-अत्रि, पुलस्त्य व पुलह ने हिमालय की यात्रा प्रारंभ की। उनको अत्यधिक प्यास लगी, परन्तु वह कोई जल श्रोत नहीं ढूंढ़ पाए ताकि अपनी पिपासा शांत कर सकें। प्यास से वह बहुत व्याकुल हो गये। उन्होंने अपने मन में पवित्र सरोवर ‘मानसरोवर’ का स्मरण किया तथा यहाँ पर कुछ गड्ढे खोदे। उनकी पिपासा को बुझाने के लिए यहाँ पर स्वतः ही तत्काल एक ताल का निर्माण हो गया !
नैनीताल नाम इसलिए पड़ा होगा
इस ताल को पहिले लोग ‘नैणताल’ अथवा ‘नैनताल’ के नाम से ही जानते थे। बाद में इसे ‘नैनीताल’ (Nainitaal) नाम दिया गया। नैनताल या नैनीताल नाम दो कारणों से पड़ा-
पहला कारण यह है कि इसके स्वामी नैनुवाँ की वजह से लोग इसे ‘नैनुवां ताल’ यानि ‘नैनुवां का ताल’ तथा बाद में नैनताल कहने लगे होंगे।
दूसरा कारण यहाँ पर नैना देवी का थान पहिले से ही होने के कारण इसे यह नाम मिला होगा।