उत्तराखंड में वास्तुकला के बेहतरीन नमूनों में से एक, जागेश्वर धाम भगवान शिव को समर्पित मंदिरों का समूह है। यहाँ करीब 124 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनमें 4-5 प्रमुख मंदिरों में ही विधिवत पूजन होता है। अल्मोड़ा शहर से करीब 36 किलोमीटर दूर समुद्रतल से 1870 मीटर की ऊंचाई पर देवदार के घने वृक्षों के बीच घाटी में बसी है देवताओं की महानगरी जागेश्वर, जिसे 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इसके मुख्य द्वार से प्रवेश करने के बाद महामृत्युंजय मंदिर ध्यान आकृष्ट करता है।
“जागेश्वर धाम” (Jageshwar) के बारे में मान्यता है कि यह प्रथम मंदिर है जहां लिंग के रूप में शिवपूजन की परंपरा सबसे पहले आरंभ हुई। कई पुराणों में इस जगह का उल्लेख मिलता है, इस पावनस्थली के बारे में एक श्लोक है-
मा वैद्यनाथ मनुषा व्रजंतु, काशीपुरी शंकर बल्ल्भावां।
अर्थात मनुष्य वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग न जा पाए, शंकर प्रिय काशी, मायानगरी (हरिद्वार) भी न जा सके तो जागेश्वर धाम में भगवान शिव के दर्शन जरूर करना चाहिए। मान्यता है कि सुर, नर, मुनि से सेवित हो भगवान भोलेनाथ यहां जागृत हुए थे इसलिए इस जगह का नाम जागेश्वर पड़ा।
मायानगयां मनुजा न यान्तु, जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजन्तु।
जागेश्वर मंदिर की एक दिलचस्प पौराणिक कथा-
कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ नष्ट करने के बाद, सती के शव को लेकर शिव विक्षिप्त से सारी सृष्टि में घूमने लगे। इस पर देव-मुनियों को चिंता में देख विष्णु ने अपने चक्र से सती के शव के खंड-खंड कर दिए। ये 52 खंड जहां-जहां गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गए। शव के नष्ट होने के बाद भी भगवान शिव, यज्ञ की भस्म को सती का हिस्सा मानकर उसे अपने शरीर पर मलकर वनों में हजारों वर्षों तक तप करते रहे।
इन्हीं वनों में वशिष्ठ आदि सप्तऋषि अपनी कुटिया बनाकर पत्नियों के साथ तप कर रहे थे। एक दिन ऋषि पत्नियां समिधा व कंदमूल इकट्ठा करने जंगल में गई हुई थीं। जैसे ही उन्होंने सुंदर सुगठित नील वर्ण के शिव को देखा, वे अपनी सुध-बुध खो बैठीं और मूर्च्छित हो गईं।
जब सप्तऋषियों ने अपनी पत्नियों को कुटिया में नहीं देखा, तो वे उन्हें ढूंढ़ने निकले। शिव को समाधि में लीन व अपनी पत्नियों को मूच्छ्रित अवस्था में देख वे क्रोध से जलने लगे। उन्होंने उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारा लिंग तुम्हारे शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जाए।
शिव ने अपने नेत्र खोले और बोले कि तुमने बिना मेरा दोष जाने मुझे श्राप दिया, माना कि संदेहजनक स्थिति में देखकर तुम सबने मुझे श्राप दिया, इस कारण मैं तुम्हारा मान रखूंगा, किंतु तुम सातों भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे। श्राप के कारण शिव का लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ा और जलता हुआ घूमने लगा। उसके ताप से पृथ्वी जलने लगी। ऋषियों ने जब यह देखा, तो वे घबराकर ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा, ‘शिव के रुद्र रूप की उपासना करिए, तभी कोई हल निकलेगा।’ ऋषियों ने रुद्र की उपासना की। देवों, यक्षों, किन्नरों ने ऋषियों के साथ महादेव की अर्चना की और लिंग को योगीश या योगेश्वर नाम दिया। यहीं से शिवलिंग के पूजन की परंपरा का प्रारंभ हुआ। यही योगेश्वर नाम जोगेश्वर में बदल गया। वह प्रथम शिवलिंग इस महामृत्युंजय मंदिर में स्थापित है।
स्कंद पुराण के मानस खंड व रेवा खंड में इस स्थल का वर्णन है। पुरातात्विक दृष्टि से महामृत्युंजय मंदिर ही इस 124 मंदिरों के समूह में सर्वाधिक प्राचीन 8वीं शताब्दी का है। यहां के 124 मंदिरों के समूह में विधिवत पूजन महामृत्युंजय, केदारनाथ, पुष्टिमाता व जागेश्वर मंदिर में ही होता है। मंदिर समूह से 5 किमी ऊपर जटागंगा है, इसी से शिव का अभिषेक किया जाता है। (Special Thing Related to Jageshwar Temple)
मान्यताएं –
कहते हैं कि यहां जो मांगो मिल जाता था अर्थात यदि किसी का अनिष्ट मांगो, तो वह भी भोलेनाथ बिना सोचे-समझे दे देते थे। 15वीं शताब्दी में शंकराचार्य ने यहां मंत्रों द्वारा महामृत्युंजय सहित पाताल भुवनेश्वर एवं गंगोलीहाट स्थित काली मंदिर को कीलित किया, तब से यहां शुभ इच्छाएं पूरी होती हैं।
कब जायें जागेश्वर धाम –
वैसे तो जागेश्वर धाम में साल भर भक्तों का आवागमन लगे रहता है। लेकिन श्रावण, शिवरात्रि, बैशाखी व कार्तिक पूर्णिमा को यह स्थल श्रद्धालुओं के स्वरों से गूंज उठता है। इन पर्वों पर जागेश्वर धाम जाना फलदायी माना जाता है।
कैसे जाएँ जागेश्वर धाम –
उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा से 36 किमी की दूरी पर स्थित है जागेश्वर धाम। अल्मोड़ा से जागेश्वर धाम का रास्ता बहुत ही सीधा और आसान है। इनके बीच चितई, बाड़ेछिना, पनवानौला और आरतौला जगहें पड़ती हैं। बस, अपनी कार या फिर प्राइवेट वाहनों से जागेश्वर तक पहुंचा जा सकता है।