Lakhudiyar Caves : मानव ने अपने जीवन के क्रिया-कलापों को जोड़-तोड़कर हमेशा नया अमली जामा पहनाये जाने की कोशिश निरन्तर बड़ती गई। जिसमें से कुछ साक्ष्य बचे और कुछ काल कवलित समय के साथ-साथ होते गये। इन्हीं में से कुमाऊं क्षेत्र में विद्यमान कुछ उडियार, गुफाऐं सम्मिलित है। गुफाऐं/उडियार दो प्रकार की होती है। पहला प्राकृतिक और दूसरा प्राकृतिक मानव द्वारा निर्मित।
प्राकृतिक गुफा
प्राकृतिक वह गुफाऐं होती है जो प्रकृति प्रदत्त तो होती है। इन गुफाओं में मानव का किसी प्रकार की संरचना नहीं छोड़ी होती है। विशेषकर वह पहाड़ जहां बड़े-बड़े चट्टान अथवा क्षेत्र की भौगोलिक संरचना पर निर्भर है। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में इतने पहाड़ है कि जिसमें चूने की मात्रा अधिक होने से पृथ्वी की आन्तरिक हलचल बराबर होती रहती है। जिसके तापमान से चूना पिघलते रहता है। यह चूना वषो± से पिघल रहा होता है। यह गुफा बनाकर अथवा नये-नये आकार देकर मानव मन मस्तिष्क को छू लेता है। इसमें विभिन्न देवी-देवताओं अथवा पशु पक्षियों के आकार बनते रहते है। मानवीय चिन्तन बराबर रहता है। उसकी सोच से यह आकृतियां अपना एक नाम पुकारने में सक्षम हो जाती है। जिससे मानव उसी नाम से पुकारते रहता है। कुमाऊं क्षेत्र में विशेषकर जनपद पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत व नैनीताल क्षेत्र के कुछ हिस्से तो चूने के पत्थर युक्त ही है। जिसमें आये दिन नई आकृतियों व गुफाओं के बारे में जानकारी मिलती रहती है। जिसमें शिव लिंग, कई देवी-देवताओं के नमूनों की जानकारी आज आम बात है। क्षेत्रीय जनता का इन गुफाओं में पौ-पवो में कभी कभार अथवा बराबर आना-जाना यथावत बना रहता है। यह गुफा और वहां के समाज पर निर्भर करता है कि इन्हें किस प्रकार प्रचारित और प्रसारित करें।
उदाहरणत: प्राकृतिक गुफाओं में पाताल भुवनेश्वर की गुफा इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि पाताल भुवनेश्वर की गुफा का उल्लेख मानसखण्ड में राजा ऋतुपर्ण के उल्लेख के साथ मिलता है। आज यह गुफा अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र में अपना नाम दर्ज कर चुकी है। अन्य गुफाऐं अभी मीडिया और पर्यटक आगन्तुकों का इन्तजार कर रही है जैसे पिथौरागढ़ के अन्तर्गत राईआगर की कोटेश्वर महादेव गुफा, चमडुंगरा की गुफा, दन्तोली की कोली उडियार, दमुवा उडियार, कोटेश्वर महादेव की गुफा, मोड़ी की गोरख्या उडियार की गुफा, रामेश्वर की गुफा चम्पावत में रीठासाहिब की गुफा, नैनीताल में केव गार्डन आदि।
प्राकृतिक मानव द्वारा निर्मित
प्राकृतिक अपितु मानव द्वारा निर्मित गुफाओं में वे गुफाऐं भी है जिन्हें आम समाज गुफा नाम से प्रचारित करता है। असल में वे शैलाश्रय व कहीं सुरंग होती है। इन गुफाओं की तरह निर्मित सुरंगों का भी कोई ध्यान समाज को नहीं है। तत्कालीन समय में राजा-महाराजाओं ने अपनी तथा जनता की सुरक्षा के लिए तथा शत्रुओं पर निगरानी रखने तथा प्रहार करने के लिए बनाये गये हैं। इनकी भी जानकारी आम समाज तक लाना आवश्यक है उदाहरणत: अल्मोड़ा में स्यूनरा कोट, हरकोट, गुजड़ू गढ़ी, डुंगरा कोट की सुरंग, चम्पावत में चण्डाल कोट, चिन्तकोट, पिथौरागढ़ में सीराकोट, उदयपुर, रानी कोट की सुरंग, नैनीताल में पल्याल कोट की सुरंग, बागेश्वर में गोपाल कोट, वदिया कोट आदि। यही नहीं इन सुरंगों के अन्दर किसी में कुऐं भी निर्मित है। इन प्राकृतिक अपितु मानव द्वारा क्रिया कलापित इन गुफाओं में समाज ने अपनी दैनिक व सामाजिक संरचनाओं की भावुकता को संजोकर रखना और प्राकृतिक पूजा का सम्मान देकर जो ऐपण आदि पूर्वजों ने रचकर रखा है उनमें विशेषकर अल्मोड़ा जनपद के अन्तर्गत इन शैलाश्रयों में मुख्यत: लखुडियार, फलसीमा, कसार देवी, हत्वालघोड़ा, कफ्फर कोट, फड़का नौली आदि की।
लखुडियार
जनपद अल्मोड़ा मुख्यालय से लगभग 17 किमी. अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मुख्य सड़क मार्ग दलबैण्ड अथवा हनुमान मंदिर जो कि ग्राम दिगोली की सीमा में विद्यमान है। हिमालय की गोद बिनसर से निकलती दो सरितायें जहां से एक ओर सर्पाकार वर्तुल में उत्तर की ओर सुयाल बन जाती है और जिनके तटों के दोनों ओर चीड़ वृक्षों के झुरमुट के आमने-सामने निहारते कई शिलाश्रय दृष्टिगत होते हैं। वही है लखुडियार, जो प्रागैतिहासिक कला का आकर्षण केन्द्र है। यह चित्रित शैलाश्रय सुयाल नदी के दाये किनारे एक ऊंची ढ़लवी चट्टान पर स्थित है। यह शैलाश्रय दलबैण्ड में निर्मित पुलिया एवं हनुमान मिन्दर से स्पष्ट दिखाई देता है। नदी के पुल का नाम भी लखुडियार पुल के नाम से नामित है। शैलाश्रय मुख्य बैण्ड से लगभग 35 मीटर आगे है।
लखुडियार का शाब्दिक अर्थ
लखुउडियार का शब्दार्थ है-लखु =लाख, उडियार =गुफा , यानी ‘एक लाख गुफाऐं’। यह संख्या की अनगिनत गुफाओं की साक्षी है। लखुडियार के सम्बन्ध में स्थानीय लोगों की आम धारणा है कि प्राचीन काल में यहां पर दो बारातों का आपस में भेंट होने से खूनी संघर्ष हो गया। यह संघर्ष इतना विकराल हुआ था कि जिनके खून से इस प्रकार के चित्र बना दिये गये, और लाख उडियार भी बनाये गये। यह धारणा सत्य है परन्तु खून से निर्मित चित्र नहीं है। यदि लोक में देखा जाये तो अवश्य ही आज भी पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्रों में (दो दुल्हों) दो बारातों की भेंट नहीं करवाते है। उनमें से एक को छुपा देते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दो राजा एक साथ, एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह रख सकते है। चूंकि यह धारणा यहां पर भी रही होगी। क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा द्वारा इस स्थल में शैलाश्रय से सम्बन्धित सांस्कृतिक पट्ट जिसमें इसके सम्बन्ध में संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है।
लखुडियार का स्वरूप
वर्तमान समय में यह शैलाश्रय लगभग 50 मीटर ऊँचे, 08 मीटर लम्बे और 02 मीटर चौड़े हैं। इसकी छत वाली चट्टान फर्श से बहुत आगे निकली हुई है। स्थल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि फर्श का अग्रभाग मूलत: लगभग चार-पांच मीटर टूट चुका है जो पूर्व में समय पहुंच से बाहर था। आज क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा द्वारा स्थल में प्रतिधारक दीवार और रेलिंग का निर्माण किये जाने से बने चित्रों को देखा जाना सम्भव हुआ है।
लखुडियार की रॉक पेंटिंग्स
इस शैल में बने चित्र अधिकतम् गहरे गेरूवे रंग के में बने है किन्तु कहीं-कहीं पर काले तथा सफेद रंग के चित्र भी दृष्टिगोचर होते है। चित्रों की विषय वस्तु में मुख्यत: पक्तिबद्ध मानव, पशु, वृक्ष, तरंगित रेखायें, ज्यामितीय नमूने युक्त अन पहचानी आकृतियां सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त अधिकतर आकृतियां भरी हुई है जबकि कुछ रेखीय भी है। मुख्यत: मानवाकृतियां पंक्तिबद्ध में एक दूसरे का हाथ पकड़े हुऐ चित्रित किये गये है। एक पंक्ति में दस-दस मानवाकृतियां बनायी गई है।
इनकी विशेषता यह है कि प्रथम मानव से अन्तिम मानव एक दूसरे को हाथ पकड़े हुए छोटे होते जा रहे हैं। अर्थात मानो कि चलती रेल गाड़ी के डिब्बे सदृश्य प्रतीत होते हैं। एक दृश्य में आठ मानव आकृतियां चित्रित है जिसमें प्रथम 20 सेमी. तथा अन्तिम 10 सेमी. का है। कई मानवाकृतियों के सिर पर पीछे की ओर बालों का ऊंचा जूड़ा भी बनाया हुआ प्रतीत होता है। इन सभी मानवाकृतियों में शरीर के मुख्य अंग सिर, गर्दन, हाथ, धड़, तथा पैर दृष्टिगोचर होते है। जिससे यह प्रतीत होता है कि ये सभी सक्रिय है, जैसे एक दृश्य में मानव को दौड़ता हुआ चित्रित किया गया है जबकि दूसरे दृश्य में कई लोग अपने हाथों में धनुष की तरह कोई वस्तु पकड़े एक ओर भाग रहे है। दौड़ते समय मानव के हाथ व पैरों की जो स्थिति होती है इसी प्रकार की क्रियात्मक भाव इनमें देखने को मिलती है। लबादे की तरह गले से पांव तक ढीले वस्त्र पहने भी इन मानवाकृतियों में बनी है। यह लबादाधारी दृश्य अपने एक हाथ को ऊपर उठाये है जिससे उनके नीचे के हाथ में लटकता वस्त्र स्वाभाविक प्रतीत होता है।
किसी प्राचीन चितेरे जैसी पशुओं की आकृति बिल्कुल स्वभावगत बनायी गई है। यद्यपि पशुओं के चित्रों की संख्या बहुत कम है। एक दृश्य में पशु आकृतियां चित्रित है, जिसमें दोनों पशुओं को साथ-साथ चलते दिखाया गया है। इस चित्र से पशु समूह का दृश्य स्वाभाविक अनुभव होता है। बकरी की तरह की एक पशु आकृति बनी है जिसका पेट सामान्यतया कुछ अलग है। जिसे पुरातत्वविदों ने गर्भवती पहाड़ी बकरी के रूप में पहचान की गई है। इस पशु का गर्भायुक्त उदर इस बात का प्रतीक है कि प्रागैतिहासिक कलाकार ने उस समय शरीर रचना का सूक्ष्म निरीक्षण कर अपने चित्रों में उतारना प्रारम्भ कर दिया था। इस शैलाश्रय में पंक्तिबद्ध तथा एकांकी वृक्षाकृतियां भी बनायी गई है। एक दृश्य में पांच पेड़ तथा लहरदार युगल रेखाओं द्वारा सम्भवत: वन का दृश्य चित्रित करने का प्रयास किया गया है। वृक्ष की आकृति में ऊपर उठी तीन शाखाओं तना तथा जड़ का ऊपरी भाग बनाया गया है। ये वृक्ष पत्ते विहीन प्रतीत होते हैं। दूसरी आकृतियों में पेड़ का शीर्ष भाग त्रिकोणाकृति का बना है, जिसके नीचे तना तथा अधोभाग मूल सहित चित्रित है। इन वृक्षों की आकृतियां दूरवर्ती देवदार के पेड़ के समान दृष्टिगोचर होती है।
शैलाश्रय के एक अन्य दृश्य में मानव, वृक्ष तथा पशु की आकृतियां पास-पास बनायी गई है। देवार सदृश्य पेड़ के एक पाश्र्व में दौड़ता हुआ मानव तथा दूसरे पार्श्व में बकरी के आकार की पशु आकृतियां चित्रित हैं। एक दृश्य में अनेक मानवाकृतियां क्रियाशील दृष्टिगोचर जो एक ओर दौड़ते हुए से प्रतीत होती है। इन सब के आगे मानव की एक बड़ी सी आकृति विद्यमान है। इस दृश्य से ऐसी अनुभूति होती है जैसे ये लोग कोई हथियार लिए सम्भवत: किसी शिकार के पीछे दौड़ रहे हों।
इसी शैलाश्रय से जुड़े हुए दूसरे शैलाश्रय के ऊपरी शिखा भाग में ग्यारह मानवों का एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्व आगे बढ़ते कदम की ओर प्रतीत होने के साथ बड़े मनोयोग से चल रहे है। इस शैलाश्रय का अग्र भाग भी पूर्व में ही टूट चुका है। अन्यथा इसमें भी हमारी विरासत के कई और साक्ष्य प्राप्त होते।
उपरोक्त मानवाकृतियां व अन्य बने मानव समूहों से पूर्णतया भिन्न है। इनमें से लोग एक दूसरे का हाथ नहीं पकड़े हुए है। जबकि अन्य समूहों में पंक्तिबद्ध मानव एक दूसरे का हाथ पकड़े चित्रित किये गये है। प्रश्नगत दृश्य में ये मानवाकृतियां अपने हाथों में कोई वस्तु धारण किये हुए है। इस कारण इस दृश्य की आखेट दृश्य से समानता की जा सकती है।
लखुडियार के चित्रों में मानव तथा वृक्षों के चित्र समान आकृति के प्रतीत होते हैं, किन्तु मानवाकृतियों में स्पष्ट रूप से गरदन सहित शीर्ष बनाया गया है। जबकि वृक्षों का शीर्ष भाग त्रिकोण अथवा ऊपर उठी हुई ठूठ सी त्रिशाखाओं से युक्त है। किसी मानवाकृतियों में सिर पर पीछे की ओर बालों के लम्बे जुड़े अथवा चोटी बनायी गई है। केशों के जुड़ों सहित सम्भवत: नारी आकृतियां प्रतीत होती है। पुरूषाकृतियों का घुमावदार शीर्ष भाग उत्तम प्रतीत होता है।
इस तरह अल्मोड़ा नगर के लगभग 50 किमी. की परिधि में लगभग कई ऐसे प्रागैतिहासिक काल के अवशेष आज भी विद्यमान है, प्रतीत होते है। प्राप्त इन चित्रों का तुलनात्मक दृष्टि से कुछ दृश्य सम्भवत: आज से लगभग 4000 वर्ष से भी पूर्व के हो सकते है। जिसमें मुख्यत: फड़का नौली, कफ्फर कोट, फलसीमा, कसार देवी, ल्वैथाप, हथवालघोड़ा आदि। इसके अतिरिक्त और भी इस 50 किमीके परिधि में अन्वेषण करने पर पूरी संभावना है और भी पुराताित्वक स्थल प्राप्त हो सकते हैं।
लखुडियार पुरास्थल के बारे में सर्वप्रथम पहाड़ पत्रिका के अनुसार डॉ मदन चन्द्र भट्ट एवं डॉ. तारा चन्द्र त्रिपाठी जी ने लिखा है। प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी जी ने इस स्थल का सबसे अधिक प्रचार-प्रसार किया था अर्थात यह कहा जा सकता है कि अपने देश के अतिरिक्त बाहर भी इन्हीं के द्वारा प्रसार हुआ है। कुछ समय पश्चात प्रो. धर्मपाल अग्रवाल, प्रो. दिवा भट्ट, डॉ. यशोधर मठपाल, डॉ जीवन सिह खर्कवाल आदि विद्वानों द्वारा भी इस स्थल के बारे में लिखा गया है। विगत कुछ दिनों पूर्व भिकियासैंण क्षेत्र में पद्मश्री डॉ. यशोधर मठपाल द्वारा ग्राम नौ गांव तोक ढ़कढ़की की पेंटिंग्स के बारे में भी लिखा है।
इस क्षेत्र व हमारी विरासत का दुर्भाग्य ही कहें अथवा हमारी अनभिज्ञता के कारण स्थानीय लोगों की ही अनुमति से वर्ष 1962 में अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मोटर मार्ग निर्माण कार्य करते समय ठेकेदार जी ने यहां पर सीमेंन्ट की कट्टों (बोरियां) को रखने से शैलाश्रय की हालात और खराब हो गई। इस स्थल पर जितने भी चित्र अथवा पेिन्टंग की गई थी उसके रासायनिक प्रभाव से सभी चित्र खत्म हो गये और यह दुष्प्रभाव लगभग 7 मीटर की परिधि में रहा है अर्थात यह कहा जा सकता है कि हमारी विरासत समय से पूर्व ही हमारी एक छोटी सी भूल से काल-कवलित हो गये। यह सत्य है कि आदिम काल में निर्मित यह आड़ी तिरछी रेखायें तात्कालिक मानव समूह की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनकी भाषा भी थी और कला भी। मानव को जब धीरे-धीरे इस तरह के रंगों का माध्यम मिला तो उसने अपने संवेगात्मक भावों को इनके माध्यम से प्रस्तुत किया। मन के यह भाव जब पूर्ण उन्मुक्ता के साथ अभिव्यक्त हुए तो यह लोक कला के अंग बने और इनमें वैचारिकता का तत्व समा गया या कहें कि इन्हें परिष्कृत कर प्रस्तुत किया गया तो वह शुद्व कला के रूप में उभर कर हम सभी के समक्ष आयी। इसे बचाये और बनाये रखना हम सभी का उत्तरदायित्व है।
Lakhudiyar Caves Location
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Source: डॉ. चन्द्र सिंह चौहान, बाड़ी बगीचा, अल्मोड़ा। (श्री नन्दा स्मारिका 2010)