Kuli Begar : सन 1921 से पूर्व ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कुमाऊँ और गढ़वाल में यहाँ के भोले लोगों को बिना पारिश्रमिक दिए कुली का काम करवाया जाता था। अंग्रेजों की यह कुली प्रथा दास प्रथा से कम नहीं थी। इस प्रथा में यहाँ के लोगों से जबरन काम लिया जाता था। यहाँ के गांवों के प्रधानों का यह दायित्व होता था कि वह निश्चित समय के लिए अंग्रेज अधिकारियों को निश्चित संख्या में कुली (श्रमिक) उपलब्ध करायेगा। प्रधानों और पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा एक रजिस्टर रखा जाता था जिसमें गांव के सभी परिवारों का ब्यौरा होता था। अंग्रेज अधिकारियों के यात्रा के दौरान बारी-बारी से सभी लोगों से कुली का काम करवाया जाता था। कुलियों से उनकी इच्छा के बगैर काम लिया जाता था। कमजोर वर्ग इस प्रथा में और भी सताया जाता था। उन्हें अंग्रेज अधिकारियों के गंदे कपड़े और कमोड़ तक को ढोने के लिए विवश किया जाता था।
कुली प्रथा तीन भागों में विभक्त था। पहला कुली उतार, दूसरा कुली बेगार और तीसरा कुली वरदायस (दावत)।
कुली उतार प्रथा
कुली उतार का शाब्दिक अर्थ था ‘कुली को नीचे बुलवाना’। उन दिनों जब भी कोई अंग्रेज अफसर किसी क्षेत्र के दौरे पर जाता था तो वहां के लोगों को साहब का सामान लेने के लिए गांव से नीचे आना पड़ता था। अगले पड़ाव में दूसरे कुली आ जाते।
कुली बेगार प्रथा
इस प्रथा के अनुसार अंग्रेज अफसरों का सामान उठाने के साथ ही अन्य काम भी लोगों को करने पड़ते थे। जिसमें अंग्रेजों के घोड़ों की देखभाल भी शामिल थी। कई अंग्रेजों के कुमाऊं में चाय बागान थे। अंग्रेजों को बेगार प्रथा केअंतर्गत नि:शुल्क काम लेने का अधिकार था। कलक्टर को बिना भुगतान के 100 कुलियों से काम लेने का अधिकार था। भूमि का मालिक प्रत्येक व्यक्ति एक कुली माना जाता था। संपूर्ण भूमि ब्रिटिश शासन की मानी जाती थी। जो कुली अनुपस्थित रहता था, उसको 15 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना भरना पड़ता था। बीमार व्यक्ति से भी कुली बेगार ली जाती थी। कुलियों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया जाता था। महिलाएं भी इसका अपवाद नहीं थीं। अपने माता-पिता के क्रियाकर्म में लगे लोगों से भी वरदायस में संपूर्ण खाद्य पदार्थ जैसे बकरा, दूध, घी और फल लिए जाते थे। भारी हिमपात के समय भी कुलियों को पेड़ों के नीचे सोना पड़ता था।
कुली बरदायस प्रथा
कुली बरदायस प्रथा के नाम पर क्षेत्र विशेष के लोगों को अंग्रेज अफसरों की आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु नि:शुल्क देनी पड़ती थी। पटवारी से लेकर दौरा करने वाले हर अंग्रेज अधिकारी को सेवा लेने का अधिकार प्राप्त था। यहां तक कि ब्रिटिश पर्यटकों को भी यह सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थीं। क्षेत्र में आगमन पर उनके भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती थी। यह सब मुफ्त और अनिवार्य व्यवस्था थी। कहा जाता है कि एक बार किसी महिला की अंग्रेज अधिकारी को दूध उपलब्ध कराने की बारी थी, किंतु जानवर नहीं होने के कारण उसने अपने स्तनों के दूध का दही जमाकर अधिकारी को पिलाया। बाद में असलियत पता चलने पर अंग्रेज अधिकारी ने उसे अपनी मां की तरह सम्मान दिया।
जब जनता में फैलने लगा आक्रोश
Kuli Begar Movement : कुली बेगार, कुली उतार और कुली वरदायस प्रथा के रूप में यहाँ की गरीब और भोलेभाले लोगों को शोषण होता रहा। गांव के पधानों, जमींदारों व पटवारियों की मिलीभगत ने इस कुप्रथा को और भी असहनीय बना दिया था। धीरे-धीरे लोगों में रोष पनपने लगा। लोगों द्वारा तत्कालीन कमिश्नरों को इस कुप्रथा को बंद करने की अपील की, लेकिन जनता की इस अपील को अनसुना किया गया। सन 1913 में अब अंग्रेजी हुकूमत ने कुली बेगार प्रथा को अनिवार्य कर दिया, पहाड़ के लोगों में विरोध की भावना फैलते गई।
इस प्रथा के खिलाफ सबसे पहले आवाज उठाई गढ़वाल के तारा दत्त गैरोला ने। वह विधानसभा के भी सदस्य थे लेकिन अंग्रेज हुकूमत पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वर्ष 1916 में पं. बद्री दत्त पांडे, गोविंद बल्लभ पंत, हरगोविंद पंत ने कुमाऊं परिषद की नींव डाली। इस परिषद ने गांधी जी से निवेदन किया कि वह इस आंदोलन का नेतृत्व करें लेकिन गांधी जी को देश भ्रमण से समय ही नहीं मिल पा रहा था, गांधी जी ने कुमाऊं के लोगों को निर्देशित किया कि वे कुली बेगार न दें।
कुली बेगार प्रथा का अंत
महात्मा गाँधी सदैव इस कुली बेगार प्रथा (Kuli Begar) का विरोध करते रहे कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में आंदोलनकारियों को नई ऊर्जा मिली। पं गोविंद बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पांडे, चिरंजीलाल आदि वहां से गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त करके 50 स्वयंसेवकों के साथ 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के मौके पर बागेश्वर पहुंचे। मेले में कुमाऊं और गढ़वाल से लगभग 40 हजार लोग आए थे। बागनाथ में पूजा के बाद जुलूस निकाला गया। स्वंसेवकों ने लोगों के डेरों में जाकर सहयोग मांगा। फिर सभा हुई जिसमें बद्रीदत्त पांडे ने किसी भी हालत में कुली बेगार और कुली बरदायस नहीं देने का आह्वान किया। तमाम लोगों ने संगम पर पवित्र गंगाजल हाथ में लेकर इस कुप्रथा के संपूर्ण बहिष्कार की कसमें खाई। तमाम प्रधानगण कुली रजिस्टर भी साथ लेकर आए थे। उन्हें सरयू नदी में बहा दिया गया। 14 जनवरी 2021 को उत्तरायणी का दिन सदैव के लिए ऐतिहासिक हो गया।
प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी स्व. बद्री दत्त पांडे ने कुली बेगार के संबंध में इस प्रकार लिखा है- ‘11 जनवरी 1921 को हम लोग बागेश्वर के लिए रवाना हुए। हरगोविंद पंत, चिरंजीलाल साह भी इस दल में शामिल थे। बागेश्वर पहुंचने पर एक झंडा तैयार किया गया, इस पर कुली उतार समाप्त लिखा गया था। उस समय मिस्टर डाईविल अल्मोड़ा के कलक्टर थे। डीएम 21 ब्रिटिश अधिकारियों, 50 पुलिस कर्मियों के साथ बागेश्वर पहुंचे। उनके पास 500 गोलियां थीं। डीएम गोली चलवाना चाहता था लेकिन फोर्स के लोग इससे सहमत नहीं थे। मिस्टर डाईविल ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने तथा निषेधाज्ञा तोड़ने के जुर्म में बंदी बनाने की चेतावनी देते हुए वहां से चले जाने को कहा। किंतु लोगों को चेतावनी का भी कोई असर नहीं हुआ। वह खून का घूंट पीकर रह गया। हमने कुली प्रथा को नहीं मानने का संकल्प लिया। तब कुलियों से संबंधित सभी कागजात सरयू नदी में बहा दिए गए।’
कलेक्टर को नसीब नहीं हुए कुली
बागेश्वर से लौटते वक्त भी डायबल और साथियों को कुली नसीब नहीं हुए। भाड़े के ट्टुओं से सामान ढ़ुलवाना पड़ा। जनरोष भड़कने के भय से सरकार ने लोगों पर सीधे कार्रवाई करने के बजाए कई लोगों पर जंगल आंदोलन के नाम पर मुकदमे कायम किए। बागेश्वर की इस घटना के बाद सरकार ने यह कुप्रथा बंद कर दी। जनता ने बद्रीदत्त पांडे को कूर्मांचल केसरी की उपाधि दी।
महात्मा गाँधी ने दी रक्तहीन क्रांति की संज्ञा
महात्मा गांधी जी ने कुली बेगार आंदोलन की प्रशंसा करते हुए इसे ‘रक्तहीन क्रांति‘ की संज्ञा दी थी। गांधी जी ने यंग इंडिया में लिखा था कि- ‘भारत के जन जागरण के अंतर्गत ऐसे कम उदाहरण मिलते हैं। जैसे कुमाऊं के लोगों ने अपनी कर्मठता और अहिंसात्मक आंदोलन के द्वारा कुली बेगार जैसी एक दास प्रथा का अंत कर दिया।’
कुली बेगार (Kuli Begar) आंदोलन से बागेश्वर को राष्ट्रीय पहचान मिली। उसी साल जून में गांधी जी कौसानी आए और 15 दिनों तक वहां रहे। गांधी जी ने वहां अनाशक्ति योग पर टीका लिखी। 22 जून को वह बागेश्वर पहुंचे। उन्होंने जनसभा के बाद स्वराज मंदिर का शिलान्यास किया। गांधी के दौरे से लोगों का हौसला बढ़ता चला गया और लोग राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में जुड़ते चले गए।
कुली बेगार पर लिखी है कविता
उत्तराखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री गौरी दत्त पाण्डे “गौर्दा” ने कुली बेगार के प्रति लोगों को अपनी कविताओं के माध्यम से जागरुक करने का प्रयास किया और वे इसमें सफल भी हुये। इस गीत में कुली बेगार से होने वाली आम आदमी की समस्या और उससे लड़ने की प्रेरणा के साथ ही अब कुली बेगार न देने की अपील तथा इसी ताकत से आजादी की लड़ाई में जुटने का आह्वान किया गया है।
मुलुक कुमाऊं का सुणी लियो यारो, झन दिया-झन दिया कुली बेगार।
चाहे पड़ी जा डंडे की मार, झेल हुणी लै होवौ तैय्यार।।
तीन दिन ख्वे बेर मिल आना चार, आंखा देखूनी फिरी जमादार।
घर कुड़ी बांजी करी छोड़ि सब कार, हांकी ली जांछ सबै माल गुजार।।
पाकि रुंछ जब ग्यूं-धाने सार, दौरा करनी जब हुनी त्यार।
म्हैण में तीसूं दिन छ उतार, लगियै रूंछ यो तिन तार॥
हूंछिया कास ऊं अत्याचार, मथि बटि बर्षछ मूसलाधार।
मुनव लुकोहं नि छ उड़यार, टहलुवा कुंछिया अमलदार॥
बरदैंस लीछिया सब तैय्यार, फिर लै पड़न छी ज्वातनैकि मार।
तबै लुकछियां हम गध्यार, द्वी मुनि को बोझ एका का ख्वार॥
भाजण में होलो चालान त्यार, भूख मरि बेर घर परिवार।
भानि-कुनि जांछि कुथलिदार, ख्वारा में धरंछी ढेरों शिकार॥
टट्टी को पाट ज्वाता अठार, खूंठा मिनूर्छियां रिश्तेदार।
घ्वाड़ा मलौ कूंछ सईस म्यार, पटवारि, चपरासि और पेशकार॥
अरदलि खल्लासि आया सरदार, बाबर्चि खनसाम तहसीलदार।
घुरुवा-चुपुवा नपकनी न्यार, बैकरन की अति भरमार॥
दै-दूध, अंडा-मुर्गि द्वि चार, को पूछो लाकड़ा-घास का भार।
बाड़-बड़ा मालैलै भरनी पिटार, अरु रात-दिना पड़नी गौंसार॥
भदुवा डिप्टी का छन वार-पार, अब कुल्ली नी द्यूं कै करो करार।
कानून न्हांति करि है बिचार, पाप बगै हैछ गंगज्यू की धार॥
अब जन धरो आपणो ख्वार, निकाली घारौ आपणा ख्वार।
निकाली नै निकला दिलदार, बागेश्वर है नी गया भ्यार॥
कौतिक देखि रया कौतिकार, मिनटों में बंद करो छ उतार।
हाकिम रै गया हाथ पसार, चेति गया तब त जिलेदार॥
बद्रीदत्त जसा हुन च्याला चार, तबै हुआ छन मुलुक सुधार।
कारण देशका छोड़ि रुजगार, घर-घर जाइ करो परचार॥
लागिया छन यै कारोबार, ऎसा बहादुर की बलिहार।
दाफा लागी गैछ अमृतधार, बुलाणा है करि हालो लाचार॥
डरिया क्वै जन, खबरदार….! पछिल हटणा में न्हांति बहार।
चाकरशा…..देली धिक्कार, फूंकि दियौ जसि लागिछ खार॥
भूत बणाई कुलि उतार, बणि आली उनरी करला उतार।
कैसूं उठैया जन करिया कोई गंवार, जंगल में तुम खबरदार॥
हूणा लागी रई लुलुक सुधार, मणि-मणि कै मिलला अधिकार।
हमरा दुःख सुणि भयौ औतार, गांधी की बोलो सब जै जैकार॥
जागि गौछ अब सब संसार, भारत माता की होलि सरकार।
ज्यौड़ि बाटी हैछ लु जसो तार, तोडि नि सकनौ भूरिया ल्वार॥
सत्य को कृष्ण छ मददगार, हमरी छ वांसू अन्त पुकार।
चिरंजीव, गोबिन्द, बद्री-केदार, हयात मोहन सिंह की चार॥
बणी गई यों मुल्क का प्यार, प्रयाग-कृष्णा छन हथियार।
ऎसा बहादुर चैंनी हजार, स्वारथ त्यागि लगा उपकार॥
शास्त्री लै छन देश हितकार, इन्न सूं लै लागि छ धार।
देशभक्ति की यो छ पन्यार, कष्टन शनेर होय हजार॥
स्वारथि मैंनू की न्हांति पत्यार, आपुणा देसकि करनी उन्यार।
नौकरशाही छ बणि मुखत्यार, कुली देऊणा में मददगार।।
विनती छू त्येहूं हे करतार, देश का यौं लै हुना फुलार।
आकाशबाणी छ नी हवौ हार, जीत को पांसो छन पौबार॥
देश का गीत गावो गीतार, चाखुलि-माखुली छोड़ौ भनार।
निहोलो जब तक सम व्यवहार, भुगुतुंला तब तक कारागार॥
लागि पड़ि करौ देश उद्धार, नी मिलौ तुमन फिरि फिटकार।
दीछिया गोरख्योल कन फिटकार, वी है कम क्या ग्वारखोल यार॥
पत्तो छु मेरो लाला बजार, गौरी दत्त पाण्डे, दुकानदार।
यह थी पहाड़ के लोगों पर थोपी गई अमानुषिक प्रथा ‘कुली बेगार’ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी। ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी गई इस कुप्रथा ने कितने गरीब जनता का शोषण किया होगा, इस बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। वहीं, इस शोषण के विरुद्ध हमारे जन प्रतिनिधियों और हमारी जनता के साहस ने ब्रिटिश हुकूमत को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया और अंततः उन्हें इस प्रथा को समाप्त करनी पड़ी। पहाड़ वासियों की यह ‘रक्तहीन क्रांति’ हमें सदैव प्रेरणा देती रहेगी।
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