Igas Bagwal: उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘इगास बग्वाल’ के रुप में ‘गढ़वाली दिवाली’ मनाई जाती है। पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़े इस पर्व के दिन घरों की साफ-सफाई के बाद मीठे पकवान बनाए जाते हैं और देवी-देवताओं की पूजा के साथ ही गौ वंश के पूजा की परम्परा है। इस दौरान रात को मंडाण लगाने और भैलो खेलने की विशिष्ट परम्परा है जो खुशियों को एक दूसरे के साथ बांटने का माध्यम है।
इगास बग्वाल (Igas Bagwal) लोकपर्व गढ़वाल क्षेत्र के लोगों द्वारा बड़े उत्साह और हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। गोवंश को पींडा (पौस्टिक आहार) दिया जाता है, बर्त खींची जाती है तथा विशेष रूप से भैलो खेला जाता है। इस अवसर पर कई प्रकार की लोक कलाओं की प्रस्तुतियां भी होती हैं। क्षेत्रों और गांवों के अनुसार इसमें विविधता होती है। सामान्य रूप से लोकनृत्य, मंडाण, चांचड़ी-थड़्या लगाते, गीत गाते, दीप जलाते और आतिशबाजी करते हैं। कई क्षे़त्रों में उत्सव स्थल पर कद्दू, काखड़ी मुंगरी को एकत्र करने की परम्परा भी है। फिर एक व्यक्ति पर भीम अवतरित होता है। वो इसे ग्रहण करता है। कुछ क्षेत्रों में बग्ड्वाल-पाण्डव नृत्य की लघु प्रस्तुतियां भी आयोजित होती हैं।
इगास बग्वाल क्यों मनाया जाता है?
इगास त्यौहार मनाने के पीछे गढ़वाल का इतिहास जुड़ा है। कहा जाता है दिवाली के समय ही चार सौ वर्ष पूर्व गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट का युद्ध जीतकर तिब्बतियों पर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन बाद उनकी सेना अपने घर पहुंची थी। जिसके बाद से प्रतिवर्ष दिवाली के ग्यारहवें दिन गढ़वाल में दिवाली के रूप में ‘इगास बग्वाल’ मनाया जाता है।
इगास बग्वाल के बारे में कई किंवदंतिया प्रचलित हैं। माना जाता है कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में राम जी के अयोध्या आगमन की सूचना 11 दिन बाद प्राप्त हुई थी। इसीलिए यहाँ दिवाली के 11 दिन बाद इगास और बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है।
उत्तराखंड में IGAS कैसे मनाया जाता है?
पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़े इगास बग्वाल के दिन लोग अपने घरों में मीठे पकवान बनाते हैं और अपने देवी-देवताओं व पुरुखों की पूजा करते हैं। विशेष तौर पर लोग धूप दीप प्रजवल्लित कर अपने गौ वंश की पूजा करते हैं। पशुओं को अनाज के लड्डू खिलाये जाते हैं। इगास बग्वाल पर रात होते ही परिवार के लोग एक साथ एकत्रित होकर चीड़, भीमल या बाज की लकड़ी से मालू के टहनी की छाल से बांधकर उसमें आग लगाकर हवा में घुमाते हैं, जिसे भैलों खेलना कहा जाता है।
इसके साथ ही पकौड़ी, पकवान, स्वाला आदि बनाते हैं और पारंपरिक वाद्य ढोल, दमाऊ की थाप पर नाचकर इगास मनाते हैं। अपने वीर भड़ों की याद में गीत गाते हैं –
एक सिंह रेन्दू बण।
एक सिंह गायका,
एक सिंह माधो सिंह और सिंह कायका
सींघ रण का, एक सींघ गाय का, एक सींघ माधो सिंह, बाकी काहे का’ आदि गीत भी गाए जाते हैं।
(गायका सिंह एक भड़ था )।
उत्तराखंड के लोकपर्व इगास बग्वाल पर वीर भड़ माधो सिंह भंडारी पर आधारित यह लोकगीत भी प्रचलित है –
बारह ऐनी बग्वाल माधो सिंगा….
सोलहा एन श्राद्ध माधो सिंगा….
सब्बि घोर एग्या माधो सिंगा…
मेरु माधो नि आयी माधो सिंगा.
कुमाऊँ की बूढ़ी दिवाली
पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़े इस त्यौहार को मानसखंड यानि कुमाऊँ में बूढ़ि दीवाली (Budi Diwali ) के नाम से जाना जाता है। वहां भी यही किवदन्ती है कि प्रभु राम के अयोध्या आगमन की सूचना यहां 11 दिन बाद मिली, तो एकादशी के दिन दीवाली मनाई गई, बाद में शेष दुनिया के साथ दीवाली मनाई जाने लगी और एकादशी को बूढ़ि दीवाली मनाई जाने लगी।
कुमाऊँ में कैसे मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु अपनी निद्रा से जागते हैं, जिसे यहां हरिबोधिनी एकादशी कहा जाता है। कुमाऊँ में इस अवसर पर एक सूप में पीछे की ओर दलिदर की प्रतिकृति भुइयां को चित्रित किया जाता है और आगे की ओर विष्णु और लछमी को चित्रित किया जाता है। घर की महिला सुबह भुइयां को रिखू (ईख) से पीटते हुए घर से बाहर ” भाज भुइयां भाज” कहती हुई आती है और आंगन में ओखल के पास दिया जलाकर अखरोट और दाड़िम फोड़ती हैं, उसके बाद सूप से खील बिखेरते हुए घर के अंदर जाती हैं। इस दौरान “आओ भैठो लछमी नरैण, भाज भुइयां घर से बाहर” कहा जाता है और आज ही दिन में तुलसी विवाह भी सम्पन्न होता है तथा शाम को दीप जलाये जाते हैं। इस प्रकार कोजागर पूर्णिमा से शुरू हुए दीपावली पर्व की आधिकारिक समाप्ति होती है।
अपनी परम्पराओं का आज भी हो रहा है निर्वहन
उत्तराखंड में आज भी वर्षों से चली आ रही इगास और बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा को निभाया जाता है। गढ़वाल में इस दौरान भैलो खेलने का रिवाज है जोकि खुशियों को एक दूसरे के साथ बांटने का माध्यम है। इस दिन रक्षा बंधन पर हाथ पर बंधे रक्षासूत्र को बछड़े की पूंछ पर बांधकर मन्नत पूरी होने के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है। वहीं कुमाऊँ में बूढ़ी दिवाली के दिन शाम को दीप जलाये जाते हैं और पारम्परिक ढंग से घर के अंदर से भुइयां को बाहर निकाला जाता है। भुइयां को दुःख ,दरिद्र व रोग शोक का प्रतीक माना जाता है।
इगास बग्वाल की शुभकामनाएं
- सभी उत्तराखंड वासियों को इगास बग्वाल की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें। Happy Igas Bagwal
- देवभूमि उत्तराखंड का सबि भै बैण्यूं थैं इगास बग्वाल (बूढ़ी दिवाली) की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं …
पहाड़ की संस्कृति, परंपराओं थे जीवित रखणा बाना अपणा त्योहारों थे पूर उत्साह से मनाणा की जरूरत च।
मिथे भौत ख़ुशी च कि पूरी दुन्याँ मा बस्यां उत्तराखंडी भै बैणा उत्साह अर उलार मा इगास पर्व मनाणा छन।
अपणी देवभूमिका देवी देवतों से यी प्रार्थना च कि इगास आप सब्युं का जीवन मा सुख-समृद्धि लेकी आवो । सभी हैंसी ख़ुशी जुग राजी रौ। - प्रकाश और उल्लास के प्रतीक उत्तराखंड के लोकपर्व ईगास बग्वाल (बूढ़ी दीपावली) की समस्त प्रदेशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। यह पावन पर्व हम सभी के जीवन में खुशियाँ, वैभव व समृद्धि लेकर आए।
आप सभी ते इगास बग्वाल की भौत-भौत बधै। - उत्तराखंड के पारंपरिक त्यौहार इगास (बग्वाल) की आपको सपरिवार बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।🥳🎉🥰🙏
- प्रिय प्रदेशवासियो,
आपको सपरिवार लोकपर्व ‘इगास बग्वाल’ एवं ‘बूढ़ी दीपावली’ की हार्दिक शुभकामनाएँ।
लोकपरम्परा देवभूमि की संस्कृति की पहचान हैं।
आइए मिलकर अपना लोकपर्व धूमधाम से मनाएँ। Happy Igas Bagwal, Happy Budi Diwali
Igas Bagwal 2024 Date:
Igas Festival Date: Tuesday, 12 November 2024– उत्तराखंड में इगास बग्वाल 12 नवंबर 2024 को गौ वंश पूजन, भैलो खेलने और मंडाण लगाने की पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ अपने हर्षोल्लाष के साथ मनाई जाएगी। सभी प्रवासी इगास मनाने अपने गांवों को लौटेंगे।