पूरे विश्व में मेले और त्यौहार सामाजिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। यह सभी जगह अलग-अलग ढंग से मनाये जाते हैं। इन परंपरागत मेलों और त्योहारों का सम्बन्ध धार्मिक विश्वास, लोकमतों, स्थानीय रीति रिवाज, बदलते मौसम, फसलों आदि से है। हमारे देश में अनेक धर्म और उनसे जुड़े केवल विभिन्न उत्सव ही नहीं हैं बल्कि अपनी विविध साँस्कृतिक परम्पराओं के कारण उन्हें अलग-अलग ढंग से मनाया भी जाता है। इससे प्रकार कुमाऊँ के पिथौरागढ़ जनपद में कुछ उत्सव समारोह पूर्वक मनाये जाते हैं, हिलजात्रा (Hilljatra) उनमें से एक है।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में “कुमौड़” गाँव में गौरा-महेश्वर पर्व के आठ दिन बाद प्रतिवर्ष ‘ हिलजात्रा ‘का आयोजन होता है। यह उत्सव हिंदी महीने भाद्रपद (अगस्त -सितम्बर) में मनाया जाता है। मुखौटा नृत्य-नाटिका के रूप में मनाये जाने वाले इस महोत्सव का मुख्य पात्र लखियाभूत, महादेव शिव का सबसे प्रिय गण, बीरभद्र माना जाता है। प्रतिवर्ष इस तिथि पर लाखिया भूत के आशीर्वाद को मंगल और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। हिलजात्रा उत्सव पूरी तरह कृषि से सम्बन्धित माना गया है।(HillJatra Pithoragarh)
हिलजात्रा में क्या होता है ?
हिलजात्रा ऐसा त्यौहार है, जो सिर्फ पिथौरागढ़ में ही मनाया जाता है। यह शिव जी की बारात का एक रुप माना जा सकता है। इसमें लोग बैलों का मुखौटा लगाकर नृत्य करते हैं और यह लोग जोडि़यों में होते हैं और इनको हांकने के लिये एक हलिया भी होता है। कई जोडि़यां बनाई जाती हैं और सब मैदान में घूम-घूम कर नृत्य करते हैं। कुछ बैल अकेले भी होते हैं, मुख्य रुप से दो बैल अकेले होते हैं, एक मरकव्वा बल्द, जो सबको मारता फिरता है और सबसे तेज दौड़ता है, दूसरा होता है गाल्या बल्द, जो कि कामचोर होता है और बार-बार सो जाता है और उसका हलिया परेशान होता है। यह दोनों बल्द संस्कृति का प्रदर्शन करते हुये ग्रामीण हास्य को भी परिलक्षित करते हैं।
हिल जात्रा में मुख्य आकर्षण होता है हिरन और लखिया भूत तथा महाकाली। हिरन के लिये एक आदमी को हिरन का मुखौटा पहना दिया जाता है और उसके पीछे तीन लोगों को बैठी मुद्रा में ढंक दिया जाता है, दूर से देखने में लगता है जैसे कोई हिरन चर रहा है। अंत मे हिरन के आंग देवता भी आता है और यह कथानक समाप्त होता है। इसे पहाड़ी ड्रेगन भी कहा जा सकता है, जिस तरह से चीन में मुखौटों के द्वारा ड्रेगन प्रदर्शित किया जाता है, उसी प्रकार से हमारे उत्तराखण्ड में हिरन को दिखाया जाता है।
हिलजात्रा के समय आस्था और विश्वास के साथ-साथ अभिनय भी देखने को मिलता है। यही एक ऐसा उत्सव है जिसमें इतिहास, संस्कृति और कला का अद्भुत समन्वय मिलता है। इसमें एक ओर महाहिमालयी क्षेत्र के मुखौटा नृत्य का प्रदर्शन होता है तो दूसरी ओर इसमें देश के अन्य हिस्सों में प्रचलित जात्रा परंपरा का भी समावेश है। यह कृषि से जुड़ा उत्सव है। पहले जब लोगों के पास मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे, तब ऐसे लोकोत्सवों में जन भागीदारी बहुत ज्यादा होती थी।
सोर घाटी में 200 साल से मनाया जा रहा है हिलजात्रा
उत्तराखंड के सोरघाटी में हिलजात्रा का आयोजन पिछले दो सौ साल से होता आ रहा है। समय बदलने पर भी इस पर्व ने आधुनिकता का लबादा नहीं ओढ़ा है। मुखौटा नृत्य की ऐसी परंपरा कुमाऊं में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। हिलजात्रा का मुख्य आयोजन शहर से सटे कुमौड़ में होता है।
हिलजात्रा की मान्यतायें
लखियाभूत को भगवान शिव के 12 वें गण रूप में माना जाता है। कहा जाता है कि हिलजात्रा के दौरान लखियाभूत जितना आक्रामक होता है, प्रसन्न होने पर उतना ही फलदायी भी होता है। हजारों की तादात में मौजूद महिलाएं और पुरुष लखिया के क्रोध को शांत करने के लिए फूल, अक्षत से अर्चना कर उन्हें मनाते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
लोक मान्यता है कि इस तरह की उपासना एवं आयोजन से लखियाभूत खुश हो जाते हैं। इससे गांव एवं इलाके में किसी प्रकार की विपदा नहीं आती। फसल बेहतर होती है। सूखा और ओलों का प्रकोप नहीं होता है।
हिलजात्रा का इतिहास
हिलजात्रा मूल रूप से नेपाल का पर्व है। वहां इसे ‘ इंद्रजात्रा ‘ के नाम से मनाया जाता है। कहा जाता है कि यह पर्व नेपाल के राजा ने महरों को भेंट स्वरूप प्रदान किया था।
कहते हैं कि महर लोग अतीत में नेपाल के राजा के निमंत्रण पर इंद्रजात्रा पर्व में शामिल होने गए थे। वहां इंद्रजात्रा शुरू होने से पहले भैंसें की बलि दी जाती थी। भैंसा कुछ इस तरह का था कि उसके सींग आगे की तरफ झुके थे। इस कारण उसकी गर्दन ढक गई। उसे काटने में अड़चन आ रही थी।
महर बंधुओं ने इस पहेली को हल कर दिया, जैसे ही भैंसें ने हरी घास खाने के लिए सिर ऊपर उठाया तो महर ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। राजा ने खुश होकर यह उत्सव भेंट कर दिया।
हिलजात्रा की नाट्य परम्परा
हिलजात्रा विशुद्ध रूप से लोकनाट्य परंपरा है। पहले जब लोगों के पास मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे, तब ऐसे लोकोत्सवों में जन भागीदारी बहुत ज्यादा होती थी। बरसात के बाद पहाड़ में चारों ओर हरियाली छा जाती है, फसलें लहलहाने लगती हैं, लोग उत्सव मनाकर स्वस्थ मनोरंजन करते हैं।
उपासना, स्वस्थ मनोरंजन का समावेश
इतिहासकारों का मानना है कि मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, सिक्किम आदि प्रांतों में भी मुखौटा नृत्य की परंपरा है। लोग ऐतिहासिक पात्रों की नकल करते हैं। ठीक इसी तरह बंगाल में जात्रा की परंपरा है। हिलजात्रा एक ऐसा नाट्य उत्सव है जिसमें देवी-देवताओं की उपासना और स्वस्थ मनोरंजन दोनों का समावेश है।
एक सप्ताह तक उत्सव में डूबे रहते हैं लोग
हिलजात्रा पिथौरागढ़ जनपद (सोरघाटी) में एक पखवाडे़ तक बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पर्व कुमौड़, भुरमुनी, मेल्टा, बजेटी, खतीगांव, सिलचमू, अगन्या, उड़ई, लोहाकोट, चमाली, जजुराली, गनगड़ा, बास्ते, देवलथल, सिरौली, कनालीछीना, सिनखोला, भैंस्यूड़ी आदि गांवों में मनाया जाता है।
Hilljatra Pithoragarh 2023
इस वर्ष पिथौरागढ़ में हिलजात्रा सोमवार, 4 सितम्बर 2023 को यहाँ के विभिन्न गांवों में पारम्परिक ढंग से आयोजित की जाएगी। लोग पारम्परिक मुखौटा नृत्य, हिरन-चीतल नृत्य,बैलों की जोड़ी, एकलवा बैल, गल्या बैल, मरक्वा बैल, खेतों में काम करती पुतारियां आदि प्रस्तुतियों का आनंद लेंगे। हिलजात्रा के मुख्य आकर्षण लखियाभूत से लोग क्षेत्र की कुशलता की कामना कर आशीर्वाद लेंगे।
सन्दर्भ – स्व० श्री पंकज सिंह महर