नंदा ही एक ऐसी देवी हैं, जिसकी पूजा गढ़वाल और कुमाऊँ के लोग एक साथ मिलकर करते हैं। देवी नंदा की कहानी उत्तराखंड में रूप कुंड नामक जगह के साथ जुड़ी हुई है। उसी घटना की याद में, उत्तराखंड में नंदाष्टमी के दिन नंदा को उसके नंदागिरि स्थित श्वसुरगृह के लिए विदा किया जाता है। उत्तराखंड में जिस प्रकार बेटी को कपड़े, जेवर, खाद्यान्न, कलेवा, दूण और दैजा (दहेज) देकर विदा किया जाता है, उसी तरह देवी नंदा की विदाई की जाती है। आइए पढ़ें रूप कुंड से जुड़ी देवी नंदा की कहानी।
Folktales of Uttarakhand-Nanda Devi and Roop Kund – भगवती नंदा की गाथा में ससुराल जाते समय पितृगृह छोड़ने का आख्यान बड़ा ही कारुणिक व मार्मिक है। यह कुछ यूं हैः अपने ससुराल जाते समय देवी (पार्वती) ने मन में सोचा कि मेरे लिए ऋषासौ (ऋषिकेश अथवा हिमालय के ऋषि क्षेत्र वाले भाग) में जन्म लेना श्रेयस्कर होगा।
हिमालय के इस ऋषासौ में हिमवंत नाम के ऋषितुल्य राजा राज्य करते थे। उनके घर देवी ने जन्म लेने की ठानी। हिमवंत ऋषि जब प्रातःकाल स्नान करने गए तो उन्हें पनघट पर एक सुंदर कन्या दिखाई दी। उन्होंने सोचा कि यह कन्या मेरे घर रहती तो कितना अच्छा था?
जब वे घर पहुँचे तो उन्होंने कन्या के विषय में अपनी पत्नी को बताया। उनकी पत्नी का नाम मयना था। वह उस समय अस्सी वर्ष की वृद्धा थी। जब वह नौ धारा वाले पनघट पर गयी तो उसे, वह कन्या नहीं दिखाई दी। मयना ने पानी पिया। उसी पानी के साथ देवी उनके उदर में प्रविष्ट हो गयीं।
ठीक समय पर जब कन्या का जन्म हुआ तो चारों और खुशियाँ मनायी गयी। जब कन्या ग्यारह दिन की हुई तो उसका नामकरण नंदा के नाम से किया गया। वह उसी दिन से कहने लगी कि मैं अपने स्वामी (शिव) के यहाँ जाना चाहती हूँ। सबको आश्चर्य हुआ।
समय आने पर देवी का विवाह शिव के साथ हो गया। विवाह के बाद जब नंदा अपने श्वसुर के घर जा रही थी, तो कर्णप्रयाग (कर्ण कुंड) में नहाने के बाद वह शैलेश्वर सिद्धपीठ की ओर चलीं। भगवती नंदा को वनाणी गाँव बहुत अच्छा लगा। वहाँ के जमनसिंह जदोड़ा ने देवी का पूजन किया।
तब देवी ने वचन दिया कि हर बारह वर्ष बाद मेरी राजजात (देव यात्रा) जाएगी। देवी नैणी गाँव पहुँची। वहाँ के नैनवालों को भी उसने कहा कि बारह वर्ष में मेरी राजजात जाएगी तो तुम छँतोली लेकर आना।
आगे चलकर नंदा देवी नौटी के पल्वाली नामक खेत पर पहुँची तो उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। उसने कहा, “यह तो मेरे ऋषासौ की तरह का ही क्षेत्र है। अतः मैं आज यहीं विश्राम करुँगी। मेरा मायका नौटी हो गया। नौटी के विजयदेव ने देवी का सम्मान अपनी बेटी की तरह किया तथा गाँव वालों ने अपनी बेटी की तरह उन्हें विदा किया।”
देवी, नौटी से शैलेश्वर पहुँची। उन्होंने नौटी से प्राप्त किए हुए कलेवा और खीर आदि का शिवजी को भोग लगाया। शिव ने पूछा कि तुम कहाँ गयी थीं? तो देवी ने कहा, ‘मैं अपने मायके ऋषसौ (नौटी) गयी थी, वहीं से यह भोग लाई हूँ। शैलेश्वर से देवी आगे काँसुवा गयीं। वहां देवी को राजवंशियों ने पहचान लिया और कहा कि हमारी बेटी कहाँ से आई है! उन्होंने भी बड़े सम्मान के साथ देवी को विदा किया। इसी तरह देवी ने काँसुवा से प्रस्थान किया और बेनीताल, कोटी, क्यूर, कोलसारी, तिलफाड़ा, वाण, गैरोली और पाताल आदि स्थानों पर विश्राम करती हुई आगे बढ़ीं। जहाँ-जहाँ देवी ने विश्राम किया, वहाँ-वहाँ लोगों से छँतोली लाने को कहा।
गैरोली, पाताल से आगे वैतरणी है। सब लोग वहीं तक नंदा को पहुँचाने गए। वहाँ से शिव के गण सारा सामान ले गए और वहीं से भारवाहकों को विदा किया गया। वहाँ पर रूपकुंड है। जब शिवजी विवाह के बाद नंदा देवी के साथ त्रिशूली जा रहे थे, तो ज्यूँरागली के ढाल पर नंदा देवी को प्यास लगी। देवी ने शिवजी से पानी की याचना की। शिवजी ने चारों और दृष्टि डाली किंतु कहीं पानी नज़र नहीं आया। पास में ही नमीयुक्त भूमि को देखकर शिवजी ने वहाँ पर त्रिशूल मारा। त्रिशूल मारते ही वहाँ पर कुंड का निर्माण हो गया।
भगवती नंदा देवी विवाह के समय शृंगार-युक्त थी। कुंड में झुककर अंजुलियों से पानी पीते समय अपना चेहरा देखकर देवी ने प्रसन्न होकर उस कुंड का नाम रूपकुंड रख दिया।
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साभार: उत्तराखंड की लोककथाएं