Bhitauli Festival: उत्तराखंड अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अनेक परंपराओं एवं रीति-रिवाजों को समेटे हुए है, जो यहाँ के लोक जीवन में आज भी रचे बसे हैं। इन्हीं परंपराओं में एक है-भिटौली। हर वर्ष चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) में मनाई जाने वाली यह परंपरा उत्तराखंड की विशिष्ट सामाजिक संस्कृति का प्रतीक है, जिसमें विवाहित बेटियों के लिए उनके मायके से उपहार और स्नेह भरी भेंट भेजी जाती है। जिसे ‘भिटौली’ या स्थानीय भाषा में ‘भिटोई‘ कहते हैं। यह परम्परा कुमाऊं की विवाहित बेटियों के लिए मायके की यादों की सौगात स्वरूप है।
भिटौली का अर्थ
सामान्य शब्दों में भिटौली (Bhitauli) का अर्थ भेंट करना (To meet) है, जिसमें नए वस्त्र, लोक पकवान, मिठाई आदि उपहार अनिवार्य रूप दे दिए जाते हैं। यह ऐसी परम्परा है जिसमें मायके की खुशबू, प्यार, ममता, स्नेह एवं भरोसे का अटूट और पावन बन्धन और मजबूत होता है। भिटौली हर विवाहिता की एक आस (आशा) होती है।
भिटौली कब दी जाती है ?
भिटौली (Bhitauli Festival) देने का सिलसिला हर वर्ष चैत्र माह की संक्रांति से प्रारम्भ होता है, जो पूरे माह तक चलता है। हिन्दू पञ्चाङ्ग के अनुसार चैत्र नए साल का प्रथम महीना होता है। नव विवाहिता को पहली भिटौली फाल्गुन महीने यानी चैत्र महीने के लगने से पूर्व दी जाती है, क्योंकि परंपरानुसार पहाड़ों में चैत्र महीने को ‘काला माह’ कहते हैं और अशुभ मानते हैं। फिर अगले आने वालों वर्षों में यह भिटौली चैत्र में देने का सिलसिला प्रारम्भ होता है। इसके अलावा बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिले के कुछ गांवों में प्रथम भिटौली विवाह के दिन जब बहन अपने ससुराल पहुँच जाती है, तब भाई उसी शाम भिटौली लेकर बहन के घर पहुँचता है। तब इसी भिटौली पर आये पकवान को नयी दुल्हन पूरे गांव में बाँटती है और अपने गए गांव के देखती है।
भिटौली कैसे दी जाती है ?
भिटोली में लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेटी या बहन को उपहार देते हैं, जिसमें मुख्यतः नए कपड़े और लोक पकवान ही होते हैं। भाई चैत्र के महीने में सुविधानुसार बहिन के घर जाता है और साथ लाये उपहार और पकवान को बहन को सौंपता है। मायके से बनकर आये इस पकवान को विवाहिता अधिक से अधिक लोगों में वितरित करती हैं और अपनी ख़ुशी प्रकट करती है।
हर विवाहिता को रहता है इंतजार
चैत्र का महीना आते ही हर विवाहिता को अपने मायके से आने वाली भिटौली का बेसब्री से इंतजार रहता है। वह चाहे कितने भी संपन्न परिवार में क्यों न व्याही गई हो, उसके लिए मायके से आने वाली यह ‘चैत्र की भिटौली’ सबसे बड़े उपहारों में से एक है। यह उसके लिए मायके के यादों की सौगात होती है। उसे अहसास होता है कि उसके भाई लोग आज भी उसे भूले नहीं हैं। उन्हें आज भी विवाह के दिन विदा करते समय दिए गए वचन याद हैं।
भिटौली से जुड़ी लोक कथायें और गीत
उत्तराखंड में भिटौली (Bhitoli) से जुड़ी अलग-अलग लोक कथाएं प्रचलित हैं। जिसमें एक दंतकथा नरिया और देबुली दो भाई-बहनों की कही जाती है। जो बेहद मार्मिक है। जिसका दुखद अंत होता है। इस कहानी को आप इस लिंक में पढ़ सकते हैं। विभिन्न लोकगायकों ने अपने लोकगीतों में भी भिटौली का मार्मिक वर्णन किया जाता है। ये गीत बेटी के ससुराल में उसकी स्थिति, मायके की यादों और भाई के भिटौली आने की प्रतीक्षा का मार्मिक चित्रण करते हैं।
भिटौली परंपरा की खास बातें:
- भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक : भिटौली को भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक माना जाता है। बचपन में साथ पले बढ़े भाई-बहन एक जब दूसरे से अलग होते हैं तो उन्हें भिटौली ही एक दूसरे से जोड़ती है। बहन को जहाँ भिटौली की आस रहती हैं, वहीं भाई अपने इस फर्ज को निभाता है। इसी के बहाने वे एक दूसरे का कुशलक्षेम जानते हैं।
- सदियों पुरानी परम्परा : भिटौली देने की परम्परा सदियों पुरानी है। जब पहाड़ों में संचार और आवागमन के साधन नहीं थे। तब भिटौली ही ऐसी परम्परा थी, जिसको निभाने के लिए मायके वाले विवाहिता के पास पहुँचते थे। वहीं चैत के महीने का इन्तजार विवाहिता बेसब्री से करती थी।
- पहाड़ी पकवानों की खुशबू : भिटौली के देने के लिए पहाड़ों में घरों में पकवान बनाये जाते हैं, जिसे लेकर भाई या माता-पिता विवाहिता के पास पहुँचते हैं। इसी पकवान को विवाहिता अपने गांव-घरों में वितरित करती है।
भिटौली परंपरा में बदलाव:
- बदलते समय में भिटौली देने की परम्परा में बदलाव आने लगे हैं। इसका प्रभाव उत्तराखंड के शहरों में ज्यादा दिखने लगा है। लोक पकवानों की जगह यहाँ मिठाईयों ने ली है। बदलते सामाजिक परिवेश में कुछ लोग तो इस परम्परा का औचित्य भी नहीं समझते हैं।
- भिटौली की बदलती परम्परा से यहाँ के गांव भी अछूते नहीं है। विवाहिता को भिटौली मिलने की ख़ुशी तो होती है लेकिन संचार के इस युग में वह सदैव अपने मायके वालों के संपर्क में रहती हैं। वहीं यह परम्परा कुछ लोगों को रस्म अदायगी ही लगने लगी है।
- भिटौली ने अब डिजिटल रूप ले लिया है। पहले जहां भिटौली के दौरान बहन या बेटी के घर जाकर कपड़े और पहाड़ी पकवान दिए जाते थे, वहीं अब यह परंपरा गूगल पे, फ़ोन पे, बैंक ट्रांसफ़र तक ही सीमित हो रही है। इन डिजिटल माध्यमों से भिटोली के रूप में कुछ धनराशि भिटौली के रूप में भेज दी जाती है।
- इस परम्परा में हो रहे बदलावों में एक कारण पहाड़ों में हो रहा पलायन का भी है। कहीं बेटी शहरों में है और मायके वाले गांवों में। फिर भी इस परम्परा का निर्वहन करते हुए वे भिटौली के रूप में कुछ धनराशि बहन-बेटी के खाते हैं ट्रांसफर कर देते हैं, ताकि हमारी ये परम्परा जीवित रहे।
निष्कर्ष
भिटौली एक परम्परा मात्र नहीं है अपितु यह विवाहित बेटी के प्रति माता-पिता और भाई-बहन के अटूट प्रेम और स्नेह का प्रतीक है। यह परम्परा मायके के प्रति बेटियों के भावनात्मक जुड़ाव को भी मजबूत करती है। यह उन्हें अहसास कराती है कि उसके मायके वाले सदैव उसके साथ हैं। यह कुमाऊँ की ऐसी परम्परा है जिसमें पारिवारिक प्रेम, स्नेह और अपनत्व का समन्वय देखने को मिलता है।
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