उत्तराखंड में शुरुआत से ही कृषि और पशुपालन आजीविका का मुख्य श्रोत रहा है। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण व्यापार की संभावनाएं नगण्य थीं, लेकिन कम उपजाऊ जमीन होने के बावजूद कृषि और पशुपालन ही जीवनयापन के प्रमुख आधार थे। आज भी कृषि और पशुपालन से सम्बन्धित कई पारम्परिक लोक परम्पराएं और तीज-त्यौहार पहाड़ के ग्रामीण अंचलों में जीवित हैं। इन त्यौहारों में हरियाली और बीजों से सम्बन्धित त्यौहार “हरेला” है, पिथौरागढ में मनाया जाने वाला “हिलजात्रा” एक ऐसा पर्व है जिसमें कृषि-पशुपालन को विशिष्ट मुखौटों और नृत्यों के साथ मैदान में प्रदर्शित किया जाता है। दीपावली के दो दिन के बाद होने वाले “गोवर्धन पूजा” पर गाय-भैंस व बैलों को सजाया जाता है।
भादों (भाद्रपद) के महीने में मनाया जाने वाला “खतड़ुवा” पर्व भी मूलत: पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है। इस त्यौहार के साथ कई मनगढन्त किस्से जोड़ दिये गये हैं जिससे इस पर्व को मनाने का मूल उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है। खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े। गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं. इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है। ( khatarua festival in uttarakhand )
इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं। पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है। शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है इसलिये “खतड़ुवा” के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है। शाम के समय घर की महिलाएं खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल को बार-बार घुमाया जाता है और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बिमारी से सदैव दूर रखें। गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं। गौशाला के अन्दर से मशाल लेकर महिलाएं भी इस चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जाते हैं। ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर “बुढी” जलायी जाती है. यह “बुढी” गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानी जाती हैं जिनमें खुरपका और मुंहपका मुख्य हैं। इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ जलती बुढी में डाल दिये जाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं-
भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,
गै की जीत, खतडुवै की हार…
भाग खतड़ुवा भाग…
अर्थात गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बिमारियों) की हार हो।
इसके साथ ही बच्चे पड़ोस के गांववालों को ऊंची आवाजों में उनकी गाय-भैंसों को लगने वाली बिमारियां अपने घर ले जाने के लिये भी आमन्त्रित करते हैं। इस अवसर पर हल्का-फुल्का आमोद-प्रमोद होता है और ककड़ी को प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है। इस तरह से यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बने रहने की कामना के साथ समाप्त होता है। ( khatarua festival 2023 )
इस महत्वपूर्ण पर्व के सम्बन्ध में पिछले दशकों से कुछ भ्रान्तियां फैलायी जा रही हैं। एक तर्कहीन मान्यता के अनुसार कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह ने गढवाल के खतड़ सिंह (खतड़ुवा) राजा को हराया था, उसके बाद यह त्यौहार शुरू हुआ। लेकिन अब जबकि लगभग सभी इतिहासकार वर्तमान उत्तराखण्ड के इतिहास में गैड़ सिंह या खतड़ सिंह जैसे व्यक्तित्व की उपस्थिति और इस युद्ध की सच्चाई को नकार चुके हैं तो इन सब कुतर्कों पर बहस करना मूर्खता ही माना जायेगा. इस काल्पनिक युद्ध की घटना का उल्लेख गढवाल या कुमाऊं के किसी ऐतिहासिक वर्णन में नही है। कुमाऊंनी के प्रसिद्ध कवि श्री बंशीधर पाठक “जिज्ञासु” की कविता की कुछ पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं-
अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं, खतड़सिंग न मिल, गैड़ नि मिल।
कथ्यार पुछिन, पुछ्यार पुछिन, गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैट्य़ुं, रमौल सुणों, भारत सुणों, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल,
स्याल्दे-बिखौती गयूं, देविधुरै बग्वाल गयूं, जागसर गयूं, बागसर गयूं,
अलम्वाड़ कि नन्दादेवी गयूं, खतड़सिंग नि मिल, गैड़ नि मिल।
यह भी सोचनीय विषय है कि पूरे विश्व के इतिहास में आज तक कोई ऐसा युद्ध नहीं हुआ, जिसमें जीत या हार का श्रेय किसी सेनापति को दिया गया हो। हमेशा ही युद्ध की जीत या हार का श्रेय सिर्फ और सिर्फ राजा को ही मिला है। दूसरा पक्ष यह भी है कि उत्तराखण्ड का सबसे प्रमाणिक इतिहास एटकिन्सन के गजेटियर को माना जाता है, क्योंकि उसने ही पूरे उत्तराखण्ड में घूमकर इसकी रचना की थी। यदि ऐसा कुछ होता तो उन्होंने इसका भी वर्णन जरुर किया होता। इसलिये अब जरूरत है कि हम अपनी समृद्ध धरोहरों के रूप में चले आ रहे खतड़ुआ जैसे अन्य पर्वों को उनमें निहित सकारात्मक सन्देश के साथ मनायें और उनसे जुड़ी भ्रान्तियों को यथाशीघ्र मिटाते चलें जायें जिससे आने वाली पीढियां भी इन परम्पराओं और लोकपर्वों को खुले मन से मना पायें। ( khatarua festival in uttarakhand )
Khatarua Festival 2023 Date
उत्तराखंड के कुमाऊँ में खतड़ुआ त्यौहार रविवार , 17 सितम्बर 2023 को पशु सेवा के साथ मनाई जाएगी। पशुओं को दुख-बिमारी से सदैव दूर रखने की कामना की जाएगी। इस दिन लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जायेंगे। पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर “बुढी” जलायी जाएगी। धान के सिरौले, मक्का, ककड़ी और अखरोट का प्रसाद वितरित किया जायेगा।
यहाँ भी पढ़ें – खतडुवा त्यौहार की ऐतिहासिक विवेचना।
लेख – श्री हेम पंत