स्वर्ग में बहने वाली गंगा का अवतरण धरती पर हिंदी माह ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था, इस कारण से इस तिथि को गंगा दशहरा के नाम से जाना जाता है। गंगा के स्वर्ग से पृथ्वी पर आने की घटना मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या नगरी से जुड़ी है।
गंगा अवतरण की पौराणिक कथा
सूर्यवंशी श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके पूर्वजों में एक चक्रवर्ती सम्राट थे महाराजा सगर। उनकी दो रानियों में से केशनी से एक पुत्र असमंजस था तो दूसरी रानी सुमति से 60 हजार पुत्र थे। असमंजस का पुत्र अंशुमान था। महाराजा सगर के सभी पुत्र दुष्ट थे, उनसे दुखी होकर राजा सगर ने असमंजस को राज्य से निकाल दिया। उनका पौत्र अंशुमान दयालु, धार्मिक, उदार और दूसरों का सम्मान करने वाला था। राजा सगर ने अंशुमान को ही अपना उत्तराधिकारी बना दिया।
ऐसे भस्म हो गए राजा सगर के 60 हजार पुत्र
इस बीच राजा सगर ने अपने राज्य में अश्वमेधयज्ञ का आयोजन किया, जिसके तहत उन्होंने अपने यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था, जिसे देवताओं के राजा इंद्र ने चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया। इधर राजा सगर के 60 हजार पुत्र उस घोड़े की खोज कर रहे थे, लाख प्रयास के बाद भी उन्हें यज्ञ का घोड़ा नहीं मिला। पृथ्वी पर घोड़ा न मिलने की दशा में उन लोगों ने एक जगह से पृथ्वी को खोदना शुरू किया और पाताल लोक पहुंच गए।
घोड़े की खोज में वे सभी कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच गए, जहां घोड़ा बंधा था। घोड़े को मुनि के आश्रम में बंधा देखकर राजा सगर के 60 हजार पुत्र गुस्से और घमंड में आकर कपिल मुनि पर प्रहार के लिए दौड़ पड़े। तभी कपिल मुनि ने अपनी आंखें खोलीं और उनके तेज से राजा सगर के सभी 60 हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए।
अंशुमान को इस घटना की जानकारी गरुड से हुई तो वे मुनि के आश्रम गए और उनको सहृदयता से प्रभावित किया। तब मुनि ने अंशुमान को घोड़ा ले जाने की अनुमति दी और 60 हजार भाइयों के मोक्ष के लिए गंगा जल से उनकी राख को स्पर्श कराने का सुझाव दिया।
गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भगीरथ की तपस्या
पहले राजा सगर, फिर अंशुमान, राजा अंशुमान के पुत्र दिलीप इन सभी को गंगा को प्रसन्न करने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। तब राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ ने अपनी तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर गंगा को पृथ्वी पर भेजने का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने कहा कि गंगा के वेग को केवल भगवान शिव ही संभाल सकते हैं, तुम्हें उनको प्रसन्न करना होगा।
तब भगीरथ ने भगवान शिव को कठोर तपस्या से प्रसन्न कर अपनी इच्छा व्यक्त की। तब भगवान शिव ने ब्रह्मा जी के कमंडल से निकली गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया और फिर उनको पृथ्वी पर छोड़ा। इस प्रकार गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ और महाराजा सगर के 60 हजार पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण गंगा को ‘भागीरथी’ भी कहा जाता है।
ब्रह्मा का कमंडल से गंगा का जन्म
एक प्रफुल्लित सुंदरी युवती का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ। इस खास जन्म के बारे में दो विचार हैं। एक की मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु का चरण धोया और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया। दूसरे का संबंध भगवान शिव से है जिन्होंने संगीत के दुरूपयोग से पीड़ित राग-रागिनी का उद्धार किया। जब भगवान शिव ने नारद मुनि ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जो ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में भर लिया। इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ और वह ब्रह्मा के संरक्षण में स्वर्ग में रहने लगी।
गंगा, एक नदी ही नहीं, भारतीय संस्कृति की एक गौरवशाली सरिता है। देवनदी, जाह्नवी, विष्णुपदा, शिवशीशधारिणी जैसे कोई 108 नाम इस नदी के हैं। ‘महाभागवत’ में ‘गंगा अष्टोत्तरशत नामावली’ मिलती है। यह इस नदी के पुण्य का ही प्रभाव है कि पातकी से पातकी तक इस नदी में निमज्जन से पुण्यश्लोकी हुआ है। यह ऐसी नदी है जिसका जिक्र ऋग्वेद से लेकर वर्तमान साहित्य तक में मिल जाता है। राजा भागीरथ के तप के प्रभाव से यह अलकनंदा से भगीरथी होकर भारत के कलिकलुष को धोती हई समुद्रगामी हुई। गंगा दशहरा या गंगादशमी का पर्व 10वीं सदी पूर्व से ही मनाया जाता रहा है। भोजराज ने ‘राजमार्तण्ड’ में दशपापों के निवारण के पर्व के रूप में इस दिवस का स्मरण किया है। जो दस पाप हरे, वह यह पर्व है। इन पापों का जिक्र सर्वप्रथम मनु ने अपनी स्मृति में किया है, जिनको यथारूप ‘स्कंदपुराणकार’ सहित अन्य पुराण, उपपुराणकारों ने भी उद्धृत किया है। मूर्तिकला में गंगा की अभिव्यक्ति नई नहीं है। गुप्तकाल से ही स्त्री रूप में यह नदी कलशधारिणी नायिका के रूप में उत्कीर्ण की जाने लगी। विशेषकर द्वारशाखा के नीचे मूर्तिमय रूप में गंगा का न्यास मिलता है। अनेक रूपों और अनेक भावों में यह नदी रूप देवालय के दर्शनार्थियों को अपनी उपस्थिति से पापमुक्ति, कलुषहारिणी का संकेत देती है। एक ओर यमुना, दूसरी ओर गंगा। इन का समन्वय पश्चिम और पूर्वी संस्कृतियों का संगम भी माना जाता है। कोई भी भाषा, धर्म-विचार हो, यहां अंतत: एकता का दर्शन होता है। इसलिए भारत की संस्कृति को गंगा-जमनी भी कहा जाता है।
गंगा और राजा शांतनु की कथा
भरतवंश में शान्तनु नामक बड़े प्रतापी राजा थे। एक दिन गंगा तट पर आखेट खेलते समय उनहें गंगा देवी दिखाई पड़ी। शान्तनु ने उससे विवाह करना चाहा। गंगा ने इसे इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि वे जो कुछ भी करेंगी उस विषय में राजा कोई प्रश्न नहीं करेंगे। शान्तनु से गंगा को एक के बाद एक सात पुत्र हुए। परन्तु गंगा देवी ने उन सभी को नदी में फेंक दिया। राजा ने इस विषय में उनसे कोई प्रश्न नहीं किया। बाद में जब उन्हें आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसे नदी में फेंकने के विरुद्ध शान्तनु ने आपत्ति की। इस प्रकार गंगा को दिया गया उनका वचन टूट गया और गंगा ने अपना विवाह रद्द कर स्वर्ग चली गयीं। जाते जाते उन्होंने शांतनु को वचन दिया कि वह स्वयं बच्चे का पालन-पोषण कर बड़ा कर शान्तनु को लौटा देंगी।