हिमालय की गरज क्या सिर्फ हिमालयवासियों की है या पूरे देश और दुनिया को?

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Save Himalaya

हिमालय की गरज क्या सिर्फ हिमालयवासियों की है या पूरे देश और दुनिया को इसके लिए सोचना चाहिए? यह प्रश्न अब कई कारणों से बड़ा होता नजर आ रहा है। सबसे पहली बात यह कि हिमालय को किसका दायित्व समझा जाए और कौन कितना इसका परोक्ष व अपरोक्ष रूप में लाभ-नुकसान उठाता है? शायद इसी से दायित्वों की सीमा भी तय होगी। हिमालय में हुई उत्तराखंड की हालिया त्रासदी बहुत कुछ बयां कर चुकी है। यह बात दूसरी है कि इस बार त्रासदी का सीधा नुकसान तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को उठाना पड़ा है। लेकिन यह इस बात की ओर साफ इशारा करता ही है कि पर्यटन व तीर्थ के रूप में हिमालय से देश का सीधा लेना-देना है। अपरोक्ष रूप में तो हिमालय का बड़ा लाभ देश के अन्य हिस्से उठाते हैं। हरित व श्वेत क्रांति के पीछे हिमालय से निकली नदियों का ही हाथ है। या यूं कहें कि हिमालय 70 करोड़ लोगों के पेट से सीधा जुड़ा है। यही नहीं, इन्ही नदियों में बने तमाम बड़े बांध देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति करते हैं, जबकि अगर हम हिमालय के गांवों की बात करें, तो अब भी हिमालय के लगभग 40-50 प्रतिशत गांव ऐसे हैं, जहां बिजली के दर्शन नहीं होते हैं। (Save Himalaya)इसी तरह, देश के 65 प्रतिशत लोगों को पानी पिलाने वाला हिमालय अपने ही लोगों की प्यास नहीं बुझा पाता। हिमालय में हजारों गांव आज अपने घरों को खो चुके हैं और पीने का पानी भी एक बड़ी समस्या का रूप ले चुका है। चाहे वह जम्मू-कश्मीर हो या उत्तराखंड या फिर मणिपुर, हिमाचल प्रदेश, पानी के संकट की खबरें बढ़ती ही जा रही हैं। कितनी अजीब बात है कि देश के 65 प्रतिशत लोगों की पानी की आवश्यकता पूरा करने वाला हिमालय खुद ही प्यासा है। यह हिमालय की नदियों की ही मिट्टी है, जो देश को खद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाए हुए है। लेकिन हिमालय की खेती खुद पानी के लिए हमेशा रोती है। वहां की सारी खेती मानसून की कृपा पर निर्भर है, जो अब समय पर आता ही नहीं।

अपरोक्ष रूप में हिमालय की आबोहवा हमेशा से पूरे देश की जीवनदायनी रही है। यह यहां के वनों के प्रताप से ही संभव हुआ। अब हिमालय में देश की आबादी का लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा ही है, तो साफ है कि प्राण वायु किसके हिस्से में ज्यादा आती है। वहां दूसरी तरफ हिमालय की जिम्मेदारी को गंभीरता से लेने की सारी कोशिशें नाकाम-सी दिखती हैं। क्योंकि दुनिया के बिगड़ते पर्यावरण का सीधा असर अगर पहले पड़ता है, तो वह हिमालय ही है। ताजा उदाहरण उत्तराखंड की त्रासदी का ही है। आखिर बिना मानसून के 72 घंटे की बारिश को दैविक चमत्कार नहीं माना जा सकता। साफ है कि पृथ्वी के लगातार बढ़ते तापमान का सीधा झटका इस वर्षा के रूप में हिमालय के सिर पर फूटा। हिमालय चूंकि अत्यंत संवेदनशील है, अत: कहीं भी पर्यावरण से हुई छेड़छाड़ का असर यहां दिखाई देता है। और अब हिमालय के पहाड़ों और वादियों में रहने वाली यह छोटी आबादी कई तरह के सवाल पूछने लगी है। (himalaya day)

हम ही विकास की कीमत क्यों चुकाएं? बांध हमारी ही जमीन पर बनते हैं, पर उनके लाभ हमें क्यों नहीं मिलते? उनकी बिजली भी देश के दूसरे लोगों और उद्योगों को मिल जाती है, फिर ऐसे विकास के शिकार सिर्फ हम क्यों बनें? किसी तरह का लाभ भी नहीं और हर तरह का नुकसान उठाने का जिम्मा हिमालय और इसके निवासी ही क्यों उठाएं?

पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पहला दायित्व हिमालय के ही मत्थे डाला जाता है। स्थानीय लोगों के लिए तो जंगल, पानी, घास, लकड़ी के लाले पड़ जाते हैं, पर देश के पर्यावरण सुरक्षा का सवाल उन्हें घेर लेता है। आखिर क्यों हिमालय और उसके लोग अपनी ही कीमत पर पर्यावरण बचाएं? पहले यह कीमत घास, लकड़ी से वंचित होकर चुकानी पड़ती थी, पर आज यहां की बिगड़ती परिस्थितियां जान लेने पर भी उतारू हैं। यहां एक और बड़ा सवाल शायद यह है कि जब पर्यावरण में बदलाव हो रहा है, तो देश के अन्य लोग क्यों खामोश बैठे हैं?

इस त्रासदी में दिवंगत हुए लोगों के परिवार के सदस्य पहाड़ न जाने की कसम खाकर मुक्त नहीं हो पाएंगे! हिमालय तो आपके साथ हमेशा और हर पल है। आपके भोजन में, पानी की टंकी में और आपकी सांसों में, यह किसी न किसी रूप में आपके साथ है। इसे नकारने का सीधा मतलब अपने हाथों अपना गला घोंटना। और जब तक यह बात देश के गले नहीं उतरेगी, तब तक हिमालय को बचाने की कसमें नहीं खाई जाएंगी। हिमालय पूरे देश की जिम्मेदारी है। देश के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती है कि वह हिमालय को बचाने के लिए आगे आए और जो हवा, मिट्टी, पानी की बात फिलहाल नहीं समझ पा रहे, वे हिमालय के अपने-अपने तीर्थ को बचाने के लिए ही आगे आएं। और कुछ नहीं, तो अपनी आने वाली पीढ़ी के पानी-मिट्टी की व्यवस्था के लिए ही इसे बचाने आएं। सच तो यह है कि हिमालय के लोग एक लंबे समय से हिमालय के बिगड़ते हालात के प्रति देश-दुनिया का ध्यान खींचने की कोशिश में जुटे हैं। वे हिमालय को अपना न मानकर देश के पालक के रूप में जानते हैं। (himalaya day 9 September)

थके-हारे हिमालय के लोग सदैव इसी प्रार्थना में जुटे हैं कि अब जब हिमालय के प्रति गंभीर चिंतन का समय आ चुका है, सब इस विचार मंथन का हिस्सा बनें। हिमालय की लगातार अवहेलना न प्रकृति को स्वीकार होगी और न ही प्रभु को। उत्तराखंड की जलप्रलय को आप चाहे शिव द्वारा अपनी जटाओं को गुस्से में झटक देना मान लें या फिर कुदरत से लंबी छेड़छाड़ का नतीजा, लेकिन अगर यह जारी रहा, तो हम सब संकट में फंसेंगे- हिमालय पर रहने वाले भी और हिमालय से दूर बसने वाले भी। अपनी जिस सभ्यता पर हम इतना गर्व करते हैं, वह हिमालय से निकली नदियों की ही देन है। इस सभ्यता को सहेजने के लिए जरूरी है कि उस पर्यावरण को सहेजा जाए, जो इन नदियों को बनाता, बहाता और हमारे खेतों में हरियाली लाता है। इस पर्यावरण का चक्र अगर टूटा, तो सूखे और बाढ़ के बीच अपनी सभ्यता को पहले की तरह बरकरार रखना हमारे लिए आसान नहीं होगा। यह मौका है, जब हम सबको भगीरथ प्रयत्न के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

  • पर्यावरणविद डॉ. अनिल जोशी जी का एक पुराना लेख।

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